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समीचीन-धर्मशाल बुद्धिसे किये जाते हैं वह दृष्टि तथा बुद्धि ही उन्हें लोकमूढतामें परिगणित कराती है; क्योंकि वस्तुतः उन कार्योंसे उस लक्ष्यकी सिद्धि नहीं बनती। इसीसे उन लोगोंका दृष्टिकोण कोरी गतानुगतिकताको लिये हुए मूढतापूर्ण (विवेकशून्य) होता है और उनके उन कार्याको लोकमूढतामें परिगणित कराता है। अन्यथा, साधारण स्नानकी या स्वास्थ्यकी दृष्टि से यदि कोई नदी-सागरादिकमें म्नान करता है, खेलकी दृष्टिसे अथवा अपने मालको सुरक्षित रखनेकी दृष्टिसे रेत तथा पत्थरोंका ऊँचा ढेर लगाता है और अनुसंधानकी दृष्टि से ज्वालामुखी पर्वतकी अग्निमें पड़ता है अथवा चहुँ ओर जलते हुए मकानमेंसे किसी बालकादिको निकालनके लिये स्वयं अग्निमें प्रवेश करता है और अग्निसे मुलस जाता या जल जाता है तो उसका वह कार्य लोकमूढतामें परिगणित नहीं होगा। इसी तरह दूसरे भी लोकमूढताके कार्योंको समझना चाहिये ।
देवता-मूढ-लक्षण वरोपलिप्सयाऽऽशावान् राग-द्वेषमलीमसाः ।
देवता यदुपासीत देवतामूढमुच्यते ॥ २३ ॥ 'आशा-तृष्णाके वशीभूत होकर वरकी इच्छासे-वांछित फल प्राप्तिकी अभिलापासे-राग-द्वेषसे मलिन-काम-क्रोध-मद-मोह तथा भयादि-दोपोंसे दुषित-देवताओंकी-परमार्थतः देवताभासोंकी-जो. ( देवबुद्धि से ) उपासना करना है उसे 'देवतामूढ' कहते हैं।'
* जिनका कुछ उल्लेख निम्न पद्योंमें पाया जाता हैं :--- सूर्याघो ग्रहग-स्नानं संक्रातौ द्रविण-व्यय: । संध्यासेवाऽग्निसत्कारो देह-गेहार्चना-विधिः ॥ १॥ गोपृष्ठान्त-नमस्कारस्तम्मूत्रस्य निषेवणं । रत्न-बाहन-भू-वृक्ष-शस्त्र-शैलादि-सेवनम् ॥ २ ॥