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कारिका १०] तपस्वी लक्षण
तपस्वि-लक्षण विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः ।
ज्ञान-ध्यान-तपोरत्न(क्त)स्तपस्वी स प्रशस्यते ॥१०॥ ‘जो विषयाशाकी अधीनतासे रहित है-इन्द्रियोंके विषयमें ग्रामत्त नहीं और न पाशा-तृष्णाके चक्करमें ही पड़ा हुआ है अथवा विषयोंकी वाँछा तकके वशवर्ती नहीं है-, निरारम्भ है-कृषि-वारिणज्यादिरूप मावद्यकर्मके व्यापारमें प्रवृत्त नहीं होता-~-, अपरिग्रही है.---- धन-धान्यादि वाह्य परिग्रह नहीं रखता और न मिथ्यादर्शन, राग-द्वेष, मोह तथा काम-क्रोधादि रूप अन्तरंग परिग्रहसे अभिभूत ही होता है
और ज्ञानरत्न-ध्यानरत्न तथा तपरत्नका धारक है अथवा ज्ञान, ध्यान और तपमें लीन रहता है-सम्यक् ज्ञानका अाराधन, प्रशस्त यानका माधन और अनशनादि समीछीन तपोंका अनुष्ठान बड़े अनुरागके माय करता है-वह (परमार्थ) तपस्वी प्रशंसनीय होता है।"
व्याख्या---यहाँ तपस्वीके 'विषयाशावशातीत' आदि जो चार विशेषण दिये गये हैं वे बड़े ही महत्वको लिये हुए हैं और उनसे सम्यग्दर्शनके विषयभूत परमार्थ तपस्वीकी वह सारी दृष्टि सामने
आ जाती है जो उसे श्रद्धाका विषय बनाती है । इन विशेषणोंका क्रम भी महत्वपूर्ण है । सबसे पहले तपस्वीके लिये विषय-तृष्णाकी वशवर्तितासे रहित होना परमावश्यक है। जो इन्द्रिय-विषयोंकी तृप्रणाके जालमें फंसे रहते हैं वे निरारम्भी नहीं हो पाते, जो आरम्भोंसे मुख न भोड़कर उनमें सदा संलग्न रहते हैं वे अपरिग्रही नहीं बन पाते, और जो अपरिग्रही न बनकर सदा परिग्रहों की चिन्ता एवं ममतासे घिरे रहते हैं वे रत्न कहलाने योग्य उत्तम ज्ञान ध्यान एवं तपके स्वामी नहीं बन सकते अथवा उनकी सावनामें लीन नहीं हो सकते, और इस तरह वे सत्श्रद्धाके पात्र ही नहीं रहते-उन पर विश्वास करके धर्मका कोई भी अनुष्ठान