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कारिका ७ ]
आप्त-नामावली
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देयतत्त्व-विवेक-सम्पन्न अथवा कृतकृत्य), सर्वज्ञ ( यथावत् निखिलार्थ - साक्षात्कारी ), अनादिमध्यान्त (आदि मध्य और अन्त से शून्य), सार्व ( सर्वके हितरूप ), और शास्ता ( यथार्थं तत्त्वापदेशक ) इन नामोंसे उपलक्षित होता है । अर्थात् ये नाम उक्तस्वरूप प्राप्तके बोधक हैं ।'
व्याख्या - आप्तदेवके गुणोंकी अपेक्षा बहुत नाम हैं- अनेक सहस्रनामों द्वारा उनके हजारों नामोंका कीर्तन किया जाता है। यहाँ ग्रन्थकारमहोदयने अतिसंक्षेपसे अपनी रुचि तथा आवश्यकता के अनुसार आठ नामोंका उल्लेख किया है, जिनमें श्राप्तके उक्त तीनों लक्षणात्मक गुणोंका समावेश है- किसी नाममें गुणकी कोई दृष्टि प्रधान है, किसीमें दूसरी और कोई संयुक्तदृष्टिको लिये हुए हैं। जैसे 'परमेष्ठी' और 'कृती' ये संयुक्तदृष्टिको लिए हुए नाम हैं, 'परंज्योति' और 'सर्वज्ञ' ये नाम सर्वज्ञत्वकी दृष्टिको प्रधान किये हुए हैं । इसी तरह 'विराग' और 'विमल' ये नाम उत्सन्नदोपकी दृष्टिको मुख्य किये हुए हैं । इस प्रकारकी नाममाला देनेकी प्राचीन कालमें कुछ पद्धति रही जान पड़ती है, जिसका एक उदाहरण ग्रन्थकार महोदय से पूर्ववर्ती आचार्य कुन्दकुन्दके 'मोक्खपाहुड़' में और दूसरा उत्तरवर्ती आचार्य पूज्यपाद (देवनन्दी) के 'समाधितन्त्र' में पाया जाता है । इन दोनों ग्रन्थों में परमात्माका स्वरूप देनेके अनन्तर उसकी नाममालाका उल्लेख किया गया है । । टीकाकार प्रभाचन्द्रने 'आप्तस्य वाचिका नाममालां प्ररूपयन्नाह' इस वाक्यके द्वारा इसे ती नाममाला तो लिखा है परन्तु साथ ही प्राप्तका एक
+ उल्लेख क्रमश: इस प्रकार है:"मलरहियो कलचत्तो प्ररिंगदि केवलो विसुद्धप्पा | परमेट्ठी परमजिणो सिवंकरो सास 'निर्मलः केवलः शुद्धो विविक्तः प्रभुरव्ययः । परमेष्ठी परात्मेति परमात्मेश्वरो जिनः || ६ || (समाधितंत्र )
सिद्धो ||६|| " ( मोक्खपाहुड)