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समीचीन-धर्मशास्त्र
[अ०१ धान अथवा आवरणसे युक्त हैं, अमूर्तिक हैं, भूतकालमें सम्मुख उपस्थित थे, भविष्यकालमें सम्मुख उपस्थित होंगे किन्तु वर्तमान में सम्मुख उपस्थित नहीं हैं उनमेंसे किसीको भी वर्तमान समयमें प्रतिविम्बित नहीं करता है; जब ज्ञान दर्पणके समान है तब केवली अथवा भगवान महावीरके ज्ञानदर्पणमें अलोक-सहित नीनों लोकोंक सर्वपदार्थ युगपत् कैसे प्रतिभासित होसकते हैं ?
और यदि युगपत् प्रतिभासित नहीं हो सकते तो सर्वज्ञता कैसे बन सकती है ? और कैसे 'सालोकानां त्रिलोकानां यद्विद्या दर्पणायते' यह विशेषण श्रीवर्द्धमान स्वामीके साथ संगत बैठ सकता है ? __ इसके उत्तरमें मैं सिर्फ इतना ही बतलाना चाहता हूँ कि उपमा और उदाहरण (दृष्टान्त) प्रायः एकदेश होते हैं-सर्वदेश नहीं, और इसलिये सर्वापेक्षासे उनके साथ तुलना नहीं की जा सकती। उनसे किसी विपयको समझनेमें मदद मिलती है, यही उनके प्रयोगका लक्ष्य होता है। जैसे किसीके मुखको चन्द्रमाकी उपमा दी जाती है, तो उसका इतना ही अभिप्राय होता है कि वह अतीव गौरवर्ण है ---यह अभिप्राय नहीं होता कि उसका
और चंद्रमाका वर्ण विल्कुल एक है अथवा वह सर्वथा चन्द्रधातुका ही बना हुआ है और चन्द्रमाकी तरह गोलाकार भी है । इसी तरह दर्पण और ज्ञानके उपमान-उपमेय-भावको समझना चाहिये । यहाँ ज्ञान (उपमेय) को दर्पण (उपमान) की जो उपमा दी गई उसका लक्ष्य प्रायः इतना ही है कि जिस प्रकार पदार्थ अपन अपने स्थानपर स्थित रहते हुए भी निर्मल दर्पणमें ज्योंके त्यों झलकते और तद्गत मालूम होते हैं और अपने इस प्रतिबिम्बित होनेमें उनकी कोई इच्छा नहीं होती और न दर्पण ही उन्हें अपने में प्रतिबिम्बित करने-करानेकी कोई इच्छा रखता हैसब कुछ वस्तु-स्वभावसे होता है; उसी तरह निर्मल ज्ञानमें भी