________________
कारिका १]
मंगलाचरण है और उनका ज्ञान कैसे एक जगह स्थित होकर सब जगतके पदार्थोंको युगपत् जानता है ? यह एक मर्मकी बात है, जिसे स्वामी समन्तभद्रने 'यद्विद्या दर्पणायते' जैसे शब्दोंके द्वारा थोड़ेमें ही व्यक्त कर दिया है । यहाँ ज्ञानको दर्पण बतलाकर अथवा दर्पणकी उपमा देकर यह स्पष्ट किया गया है कि जिस प्रकार दर्पण अपने स्थानसे उठकर पदार्थोके पास नहीं जाता, न उनमें प्रविष्ट होता है और न पदार्थ ही अपन स्थानस चलकर दर्पणके पास
आते तथा उसमें प्रविष्ट होते हैं। फिर भी पदार्थ दर्पणमं प्रतिबिम्बित होकर प्रविष्टसे जान पड़ते हैं और दर्पण भी उन पदार्थाको अपने प्रतिबिम्बित करता हुआ तद्गत तथा उन पदार्थाक आकाररूप परिणत मालूम होता है, और यह सब दर्पण तथा पदार्थोकी इच्छाक विना ही वस्तु-स्वभावसे होता है । उसी प्रकार वस्तुस्वभावसे ही शुद्धात्मा केवलीके केवलज्ञानरूप दर्पणमं अलोकसहित सब पदार्थ प्रतिविम्बित होते हैं और इस दृष्टिसे उनका वह निर्मलज्ञान आत्मप्रदेशांकी अपेक्षा सर्वगत न होता हुआ भी सर्वगत कहलाता है और तदनुरूप वे केवली भी स्वात्मस्थित होते हुए सर्वगत कहे जाते हैं । इस में विरोधकी कोई बात नहीं है । इस प्रकारका कथन विरोधाऽलङ्कारका एक प्रकार है, जो वास्तव में विरोधको लिये हुए न होकर विरोधसा जान पड़ता है और इसीसे 'विरोधाभास' कहा जाता है। अतः श्रीवर्द्धमान स्वामीक प्रदेशापेक्षा सर्वव्यापक न होते हुए भी, स्वात्मस्थित होकर सर्वपदार्थोंको जानने-प्रतिभासित करने में कोई बाधा नहीं आती। . अब यहाँपर यह प्रश्न किया जा सकता है कि दर्पण तो वर्तमानमें अपने सम्मुख तथा कुछ तिर्यक् स्थित पदार्थोंको ही प्रतिबिम्बित करता है-पीछेके अथवा अधिक अगल-बगलके पदार्थोंको वह प्रतिबिम्बित नहीं करता और सम्मुखादिरूपसे स्थित पदार्थों में भी जो सूक्ष्म हैं, दूरवर्ती हैं, किसी प्रकारके व्यव