________________
'कारिका ४ ]
सम्यग्दर्शन- लक्षण
३५
मिथ्या देशनाको लेकर उनकी अच्छी परीक्षा की है और उन्हें 'श्राप्ताभिमानदग्ध' बतलाते हुए । वस्तुतः अनाप्त सिद्ध किया है । इस विशेषणके द्वारा उन सबका निरसन होकर विभिन्नता स्थापित होती है। यही इस विशेषणपद (परमार्थानां ) के प्रयोगका मुख्य
श्य है और इसीको स्पष्ट करनेके लिये ग्रन्थमें इस वाक्यके अनन्तर ही परमार्थ आप्तादिका यथार्थ स्वरूप दिया हुआ है ।
परमार्थ आतादिकका श्रद्धान उनकी भक्ति - वास्तवमें सम्यग्दर्शन ( सम्यक्त्व) का कारण है-स्वयं सम्यग्दर्शन नहीं । कारण यहां कार्यका उपचार किया गया है x और उसके द्वारा दर्शनके इस स्वरूप कथनमें एक प्रकारसे भक्तियोगका समावेश किया गया है। प्रन्थ में सम्यग्दर्शनकी महिमाका वर्णन करते हुए जो निम्न वाक्य दिये हैं उनसे भी भक्तियोगके इस समावेशका स्पष्ट उल्लेख पाया जाता है
-
"मराप्सरसां परिषदि चिरं रमन्ते जिनेन्द्रभक्ताः स्वर्गे ||३७|| " लब्ध्वा शिवं च जिनभक्तिरूपेति भव्यः " ॥४१॥
और दर्शनिक प्रतिमाकं स्वरूपकथन (का० १३७) में सम्यदृष्टि के लिये जो पञ्चगुरु चरणशरण': - 'पंचगुरुओं के चरण ( पादयुगल अथवा पदवाक्यादिक) ही हैं एकमात्र शरण जिसको ऐसा जो विशेषण दिया गया है तथा ग्रन्थकी अन्तिम कारिका में
+ त्वन्मतामृतबाह्यानां सर्वर्थकान्तवादिनाम् । प्राप्ताभिमानदग्धानां स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते ||७||
X श्रावकप्रज्ञप्ति की टीकामें श्रीहरिभद्रसूरिने भी ग्रहच्छासनकी प्रीत्यादिरूप श्रद्धाको, जोकि सम्यक्त्वका हेतु है, कारणमें कार्यके उपचारसे सम्यक्त्व बतलाया है और परम्परा मोक्षका कारण लिखा है । यथा"तरस्य तु व्यवहारनयस्य सम्यक्त्वं सम्यक्त्व हेतुरपि अच्छासनप्रीत्यादिकारणे कार्योपचारात् । एतदपि शुद्धचेतसां पारम्पयेंरंगापवर्गहेतुरिति ।"