________________
कारिका ४] सम्यग्दर्शन-लक्षण
३३ है उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं। अर्थात् यह सब गुरण-समूह सम्यग्दर्शन का लक्षण है-अभिव्यञ्जक है- प्रथवा यों कहिये कि आत्मामें सम्यग्दर्शन-धर्मके प्रादुर्भावका संद्योतक है।'
व्याख्या-यहाँ 'श्रद्धान' से अभिप्राय श्रद्धा, रुचि, प्रतीति, प्रत्यय (विश्वास), निश्चय, अनुराग, सादर मान्यता, गुणप्रीति, प्रतिपत्ति (सेवा, सत्कार) और भक्ति जैसे शब्दोंके श्राशयसे है । इनमेंसे श्रद्धा, रुचि, गुणप्रीति, प्रतिपत्ति और भक्ति जैसे कुछ शब्दोंका तो स्वयं ग्रन्थकारने इसी ग्रंथमें-सम्यग्दर्शनके अंगों तथा फलका वर्णन करते हुए प्रयोग भी किया है । और दूसरे शब्दोंका प्रयोग अन्यत्र प्राचीन साहित्यमें भी पाया जाता है। आप्तादिके ऐसे श्रद्धानका फलितार्थ है तदनुकूल वर्तनकी उत्कण्ठाको लिए हुए परिणाम–अर्थात् निर्दिष्ट आप्त-आगम-तपस्वियोंके वचनोंपर विश्वास करके (ईमान लाकर)-उनके द्वारा प्रतिपादित तत्त्वोपदेशको सत्य मानकर-उसके अनुसार अथवा आदेशानुसार चलनेका जो भाव है वही यहां 'श्रद्धान' शब्दके द्वारा अभिमत है।
और 'परमार्थ' विशेपणके द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि वे आप्तादिक परमार्थ-विषयके-मोक्ष अथवा अध्यात्मविषयके-आप्त, आगम (शास्त्र) तथा तपस्वी होने चाहिये-मात्र लौकिक विषयके नहीं; क्योंकि लौकिक विषयोंके भी आप्त, शास्त्र
और गुरु (तपस्वी ) होते हैं। जो जिस विषयको प्राप्त हैपहुँचा हुआ है अथवा उसका विशेषज्ञ है—एक्सपर्ट (Expert) है- वह उस विषयका आप्त है। विश्वसनीय ( Trustworthy, Reliable), प्रमाणपुरुष (Gaurantee) और दक्ष तथा पटु
* देखो, कारिका ११, १२, १३, १७, ३७, ४१ ।