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समीचीन-धर्मशास्त्र विना नहीं होता और सम्यग्ज्ञान सम्यकदर्शनके विना नहीं बनता, अतः सम्यक्चारित्र कहनेसे सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञानका भी साथमें ग्रहण हो जाता है। स्वयं प्रवचनसारमें उससे पूर्वकी गाथामें श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने 'जीवस्स चरित्तादो दंसणणाणपहाणादो' इस वाक्यके द्वारा चारित्रका 'दर्शन-ज्ञान-प्रधान' विशेषण देकर उसे और भी स्पष्ट कर दिया है। अहिंसा चारित्रका प्रधान अंग होनेसे परमधर्म कहलाता है 'दया' उसीकी सुगंध है। दोनोंमें एक निवृत्तिरूप है तो दूसरा प्रवृत्तिरूप है। इसी तरह दशलक्षणधर्मका भी रत्नत्रयधर्ममें समावेश है। और इसके प्रबल प्रमाणके लिए इतना ही कह देना काफी है कि जिन श्रीउमास्वाति आचार्यने तत्त्वार्थसूत्रके पूर्वोद्धृत प्रथम सूत्रमें सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रको 'मोक्षमार्ग' बतलाया है उन्होंने इस सूत्रके विषयका स्पष्टीकरण | करते हुए संवरके अधिकारमें दशलक्षणधर्मके सूत्रको रक्खा है, जिससे स्पष्ट है कि ये सब धर्म सम्यग्दर्शनादिरूप रत्नत्रय धर्मके ही विकसित अथवा विस्तृतरूप हैं। ऐसी हालतमें आपत्तिके लिये कोई स्थान नहीं रहता और धर्मका यह प्रस्तुतरूप बहुत ही सुव्यवस्थित, मार्मिक एवं लक्ष्यके अनुरूप जान पड़ता है। अस्तु । __ अब आगे धर्मके प्रथम अंग सम्यग्दर्शनका लक्षण प्रतिपादन करते हुए आचार्य महोदय लिखते हैं
सम्यग्दर्शन-लक्षण श्रद्धानं परमार्थानामाप्ताऽऽगमतपोभताम् । त्रिमूढापोढमष्टङ्ग सम्यग्दर्शनमस्मयः ॥ ४ ॥ ‘परमार्थ आप्तों, परमार्थ आगमों और परमार्थ तपस्वियोंका जो अष्ट अङ्गसहित, तीन मूढता-रहित तथा मद-विहीन श्रद्धान + सारा तत्त्वार्थसूत्र वास्तवमें इसी एक सूत्रका स्पष्टीकरण है।