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कारिका २]
देश्य - धर्मके विशेषण
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'मैं उस समीचीन धर्मका निर्देश ( वर्णन ) करता हूँ जो कर्मोंका विनाशक है और जीवोंको संसार के दुःखसे—दुःखसमूहमेनिकालकर कर उत्तम सुखमें धारण करता है ।'
व्याख्या - इस वाक्य में जिस धर्मके स्वरूप-कथनकी 'देशयामि' पदके द्वारा प्रतिज्ञा की गई है उसके तीन खास विशेषण हैं - सबसे पहला तथा मुख्य विशेषण हैं 'समीचीन' दूसरा 'कर्म निवर्हण' और तीसरा 'दुखसे उत्तम सुखमें धारण' । पहला विशेषरण निर्देश्य धर्मकी प्रकृतिका द्योतक है और शेष दो उसके अनुष्ठान - फलका सामान्यतः (संक्षेप में) निरूपण करने वाले हैं।
'कर्म' शब्द विशेपण-शून्य प्रयुक्त होनेसे उसमें द्रव्यकर्म और भावकर्मरूपसे सब प्रकार के अशुभादि कर्माका समावेश है, जिनमें रागादिक 'भावकर्म' और ज्ञानावरणादिक' 'द्रव्यकर्म' कहलाते हैं। धर्मको कर्मोंका निवर्हण विनाशक बतलाकर इस विशेषण के द्वारा यह सूचित किया गया है कि वह वस्तुतः कर्मबन्धका कारण नहीं प्रत्युत इसके, बन्धसे छुड़ानेवाला है । और
* इसी बातको श्री श्रमृतचन्द्राचार्यने पुरुषार्थसिद्धयुपायके निम्न वाक्योंमें धर्मके अलग अलग तीन अङ्गों को लेकर स्पष्ट किया है और बतलाया है कि जितने अंशमें किसीके धर्मका वह अङ्ग है उतने अंशमें उसके कर्मबन्ध नहीं होता - कर्मबन्धका कारण रागांश है, वह जितने अंशोंमें साथ होगा उतने अंशोंमें बन्ध बँधेगा :
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येनांशेन सुदृष्टिस्तेनांशेनाऽस्य बन्धनं नास्ति । येनांशेन तू रागस्तेनांशेनाऽस्य बन्धनं भवति ॥ २१२ ॥
येनांशेन ज्ञानं तेनांशेनाऽस्य बन्धनं नास्ति । येनांशेन तू रागस्तेनांशेनाऽस्य बन्धनं भवति ॥ २९३ ॥ येनांशेन चरित्रं तेनांशेनाऽस्य बन्धनं नास्ति । येनांशेन तू रागस्तेनांशेनाऽस्य बन्धनं भवति ॥ २१४ ॥