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कारिका २]
देश्य - धर्मके विशेषण
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प्रदेशस्थित एक पदार्थ यदि तीन दिनमें विकारग्रस्त होता है तो वही पदार्थ शीतप्रधान पहाड़ी प्रदेशमें स्थित होने पर उससे कई गुने अधिक समय तक भी विकारको प्राप्त नहीं होता । उष्णप्रधान प्रदेशों में भी असावधानीसे रक्खा हुआ पदार्थ जितना जल्दी विकृत होता है उतनी जल्दी सावधानी से सीलादिको बचाकर रक्खा हुआ नहीं होता । जो पदार्थ वायुप्रतिबंधक (Air-tight) पात्रों तथा बर्फके सम्पर्क में रक्खा जाता है अथवा जिसके साथमें पारे आदिका संयोग होता है उसके विकृत न होनेकी कालमर्यादा तो और भी बढ़ जाती है। ऐसी स्थिति में मर्यादाकी समीचीनता समीचीनता बहुत कुछ विचारणीय होजाती है और उसके लिये सर्वथा कोई एक नियम निर्धारित नहीं किया जा सकता । अधिकांशमें तो वह सावधान पुरुषके विवेकपर निर्भर रहती है, जो सब परिस्थितियोंको ध्यान में रखता और वस्तुविकार - सम्बन्धी अपने अनुभवसे काम लेता हुआ उसको निर्धार करता है । इन्हीं तथा इन्हीं जैसी दूसरी बातोंको ध्यान में रखकर इस ग्रन्थमें धर्मके अंगों तथा उपांगों आदिके लक्षणोंका निर्देश किया गया है और विशेषणों आदिके द्वारा, जैसे भी सूत्र रूपमें बन पड़ा अथवा आवश्यक समझा गया, इस बातको सुझाने का यत्न किया है कि कौन धर्म, किसके लिये, किस दृष्टिसे कैसी परिस्थितिमें और किस रूपमें ग्राह्य है; यही सब उसकी समीचीनताका द्योतक है जिसे मालूम करने तथा व्यवहारमें लानेके लिये बड़ी ही सतर्कदृष्टि रखनेकी जरूरत है । सद्द्दष्टि विहीन तथा विवेक - विकल कुछ क्रियाकाण्डोंके कर लेने मात्र से ही धर्मकी समीचीनता नहीं सधती ।
* खाद्य वस्तु-विकार प्रायः वस्तुके स्वाभाविक वर्ण-रस- गंधके बिगड़ जाने, उसमें फूई लग जाने अथवा फूली - जाला पड़ जाने प्रादिसे लक्षित होता है ।