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कारिका २]
मंगलाचरण
"ज्ञो ज्ञेये कथमज्ञः स्यादसति प्रतिबन्धने । दाऽग्निर्दाहको न स्यादसति प्रतिबन्धने ॥" अतः श्रीवर्द्धमानस्वामीके ज्ञानदर्पण में अलोक - सहित तीनों लोकों के प्रतिभासित होने में बाधाके लिये कोई स्थान नहीं है; जब कि वे घातिकर्ममलको दूर करके निधू तकलिलात्मा हो चुके थे। इससे उनके इस विशेषणको पहले रक्खा गया है । और चूँकि उनके इस निर्धनकलिलात्मत्व नामक गुणविशेषका बोध हमें उनकी युक्तिशास्त्राविरोधिनी दिव्य वाणीके द्वारा होता है। इसलिये उस भारती- विभूति-संसूचक 'श्री' विशेषको कारिकामें उससे भी पहला स्थान दिया गया है।
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इस प्रकार यह निवद्ध मङ्गलाचरण ग्रन्थकार महोदय स्वामी समन्तभद्रके उस अनुचिन्तनका परिणाम है जो ग्रन्थकी रूप-रेखाको स्थिर करनेके अनन्तर उसके लिये अपनेको श्रीवर्द्धमानस्वामीका आभारी मानने के रूपमें उनके हृदय में उदित हुआ है, और इसलिये उन्होंने सबसे पहले 'नमः' शब्द कहकर भगवान वद्धमान के आगे अपना मस्तक झुका दिया है और उसके द्वारा उनके उपकारमय आभारका स्मरण करते हुए अपनी अहंकृतिका परित्याग किया है । ऐसा वे मौखिकरूपसे मङ्गलाचरण करके भी कर सकते थे उसे ग्रन्थ में निबद्ध करके उसका अङ्ग बनानेकी जरूरत नहीं थी । परन्तु ऐसा करना उन्हें इट नहीं था । वे आत-पुरुषोंके ऐसे स्तवनों तथा स्मरणोंको कुशल- परिणामोंकापुण्य-प्रसाधक शुभभावका कारण समझते थे और उनके द्वारा श्रेयो मार्गका सुलभ तथा स्वाधीन होना प्रतिपादन करते थे ।
इस विषयका विशेष स्पष्टीकरण स्वयं स्वामी समन्तभद्रने अपने 'प्राप्तमीमांसा (देवागम) नामके दूसरे ग्रन्थमें स त्वमेवासि निर्दोषां युक्तिशास्त्राविरोधिवाक' इत्यादि वाक्योंक द्वारा विस्तारके साथ किया है । देखो, स्वयम्भू स्तोत्रकी 'स्तुतिः स्तोतुः साधोः ' कारिका ११६