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समीचीन-धर्मशास्त्र [अ० १ चित्त हैं-उन्होंने वस्तुतः अपनेको समझा ही नहीं और न उन्हें नेगकुलतामय सच्चे स्वाधीन सुखका कभी दर्शन या आभास ही हुआ है। - यहाँ पर इतना और भी जान लेना चाहिये कि उक्त तीसरे विशेषणके संघटक वाक्य 'संसारदुःखतः सत्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे' में 'सत्वान्' पद सब प्रकारके विशेषणोंसे रहित प्रयुक्त हुआ है और इससे यह स्पष्ट है कि धर्म किसी जाति या वर्ग-विशेषके जीवोंका ही उद्धार नहीं करता बल्कि ऊँच-नीचादिका भेद न कर जो भी जीव-भले ही वह म्लेच्छ, चाण्डाल, पशु, नारकी, देवादिक कोई भी क्यों न हो-उसको धारण करता है, उसे ही वह दुःखसे निकालकर सुखमें स्थापित करता है और उस सुखकी मात्रा धारण किये हुए धर्मकी मात्रापर अवलम्बित रहती है जो अपनी योग्यतानुसार जितनी मात्रामें धर्माचरण करेगा वह उतनी ही मात्रामें सुखी बनेगा । और इसलिये जो जितना अधिक दुःखित एवं पतित है उसे उतनी ही अधिक धर्मकी आवश्यकता है और वह उतना ही अधिक धर्मका आश्रय लेकर उद्धार पानेका अधिकारी है। ___ वस्तुतः 'पतित' उसे कहते हैं जो स्वरूपसे च्युत है-स्वभावमें स्थिर न रहकर इधर उधर भटकता और विभाव-परिणतिरूप परिणमता है-, और इसलिये जो जितने अंशोंमें स्वरूपसे च्युत है वह उतने अंशोंमें ही पतित है । इस तरह सभी संसारी जीवक एक प्रकारसे पतितोंकी कोटिमें स्थित और उसकी श्रेणियोंमें विभाजित हैं। धर्म जीवोंको उनके स्वरूपमें स्थिर करनेवाला है,
* जीवोंके दो मूलभेद हैं—संसारी और मुक्त; जैसाकि 'संसारिणो मुक्ताश्च' इस तत्वार्थसूत्रसे प्रकट हैं । मुक्तजीव पूर्णत: स्वरूपमें स्थित होनेके कारण पतितावस्थासे प्रतीत होते है ।