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कारिका २] देय-धर्मके विशेषण द्वारा उल्लेखित किया गया है । इसीसे दूसरे प्राचार्याने 'धर्मः सर्वसुखाकरो हितकरों' इत्यादि वाक्योंके द्वारा धर्मका कीर्तन किया है । और स्वयं स्वामी समन्तभद्रने प्रन्थके अन्तमें यह प्रतिपादन किया है कि जो अपने आत्माको इस (रत्नत्रय) धर्मरूप परिणत करता है उसे तीनों लोकोंमें 'सर्वार्थसिद्धि' स्वयंवराकी तरह वरती है अर्थात् उसके सब प्रयोजन अनायास सिद्ध होते हैं।' और इसलिये धर्म करनेसे सुखमें बाधा आती है ऐसा . समझना भूल ही होगा। । वास्तवमें उत्तम सुख जो परतन्त्रतादिके अभावरूप शिव(निःश्रेयस) सुख है और जिसे स्वयं स्वामी समन्तभद्रने 'शुद्धसुख' बतलाया है उसे प्राप्त करना ही धर्मका मुख्य लक्ष्य हैइन्द्रियसुखों अथवा विषयभोगोंको प्राप्त करना धर्मात्माका ध्येय नहीं होता । इन्द्रियसुख बाधित, विषम, पराश्रित, भंगुर, बन्धहेतु और दुःखमिश्रित आदि दोषोंसे दूषित है। । स्वयं स्वामी समन्तभद्रने इसी ग्रन्थमें 'कर्मपरवशे' इत्यादि कारिका-(१२) द्वारा उसे 'कर्मपरतन्त्र, सान्त (भंगुर), दुःखोंसे अन्तरित-एकरसरूप न रहनेवाला-तथा पापोंका बीज बतलाया है। और लिखा है कि धर्मात्मा (सम्यग्दृष्टि) ऐसे सुस्त्रकी आकांक्षा नहीं करता।'
और इसलिये जो लोग इन्द्रिय-विषयोंमें आसक्त हैं-फँसे हुए हैं अथवा सांसारिक सुखको ही सब कुछ समझते हैं वे भ्रान्त
* देखो, 'निःश्रेयसमभ्युदयं' तथा 'पूजार्थाजैश्वर्यै :' नामकी कारिकाएँ (१३०, १३५)
x 'निर्वाणं शुद्धसुखं निःश्रेयसमिष्यते नित्यम् ।' (१३१)
श्रीकुन्दकुन्दाचार्य, प्रवचनसार (१-७६) में, ऐसे इन्द्रियसुखको वस्तुत: दुःख ही बतलाते हैं । यथा
सपरं बाधासहियं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं । जं इंदियेहिं लदं तं सोक्सं दुक्खमेव तहा ॥