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कारिका १]
मगलाचरण
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मातों नरक भी आ जाते हैं, तद्गत द्रव्यों सहित 'अधोलोक' कहलाता है । रत्नप्रभाभूमिसे ऊपर सुदर्शनमेरुकी चूलिका तकका सब क्षेत्र तद्गत द्रव्यों सहित 'मध्यलोक' कहा जाता है और उसमें सम्पूर्ण ज्योतिर्लोक तथा तिर्यक्लोक अन्तिम वातवलयपर्यन्त शामिल है । और सुदर्शनमेरुकी चूलिकासे ऊपर स्वर्गादिकका इधर-उधर के सब प्रदेशों सहित जो अन्तिम वातवलय - पर्यन्त स्थान है वह तद्गत द्रव्यों सहित 'ऊर्ध्वलोक' कहलाता है । लोकके इन तीन विभागोंकी जैनागम में 'त्रिलोक' संज्ञा है । इन तीनों लोकोंसे बाहरका जो क्षेत्र है और जिसमें सब ओर अनन्त आकाश के सिवाय दूसरा कोई भी द्रव्य नहीं है उसे 'अलोक ' कहते हैं। लोक- अलोक में संपूर्ण ज्ञेय तत्त्वोंका समावेश होजानेसे उन्हीं में ज्ञेयतत्त्वकी परिसमाप्ति की गई है। अर्थात् आगम में यह प्रतिपादन किया गया है कि 'ज्ञेयतत्त्व लोक अलोक है— लोक
लोकसे भिन्न अथवा बाहर दूसरा कोई 'ज्ञेय' पदार्थ है ही नहीं । साथ ही, ज्ञेय ज्ञानका विषय होनेसे और ज्ञानकी सीमाके बाहर
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का कोई अस्तित्व न बन सकनेसे यह भी प्रतिपादन किया गया है कि 'ज्ञानज्ञेय-प्रमाण है' । जब ज्ञेय लोक- अलोक प्रमाण है तब ज्ञान भी लोक- अलोक - प्रमाण ठहरा, और इसलिये ज्ञानको भी लोक अलोककी तरह सर्वगत ( व्यापक) होना चाहिये; जैसा कि श्री कुन्दकुन्दाचार्य-प्रणीत प्रवचनसारकी निम्न गाथासे प्रकट है :
आदा णाणपमाणं णाणं ऐयप्पमाणमुद्दिट्टम् ।
णेयं लोयाऽलोयं तम्हा गाणं तु सव्वगयं ।। १-२३ ॥
इसमें यह भी बतलाया है कि 'आत्मा ज्ञानप्रमाण है' - ज्ञान से बड़ा या छोटा आत्मा नहीं होता । और यह ठीक ही है; क्योंकि ज्ञानसे आत्माको बड़ा माननेपर आत्माका वह बढ़ा हुआ अंश ज्ञानशून्य जड ठहरेगा और तब यह कहना नहीं बन सकेगा कि
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