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कारिका १] मंगलाचरण अथवा आगमतीर्थका प्रवर्तन होता है और उसके प्रवर्तक शास्ता, तीर्थङ्कर तथा आगमेशी कहलाते हैं। शेष दो प्रमुख अङ्ग निर्दोपता और सर्वज्ञता हैं, जिन्हें उक्त मङ्गल-पद्यमें 'निर्धतकलिलात्मने' आदि पदोंके द्वारा व्यक्त किया गया है। और इससे भी यह और स्पष्ट होजाता है कि आपके प्रमुख तीन विशेषणोंमेंसे अवशिष्ट विशेषण तीर्थप्रवर्तिनी दिव्यवाणी ही यहां 'श्री' शब्दके द्वारा परिगृहीत है और उस श्रीसे वर्द्धमानस्वामीको सम्पन्न बतलाया है। इस तरह प्राप्तके उत्सन्नदोप, सर्वज्ञ और आगमेशी ये तीन विशेषण जो आगे इसी शास्त्र (कारिका ५) में बतलाये गये हैं और जिनके बिना प्राप्तता होती ही नहीं' ऐसा निर्देश किया है, उन सभीके उल्लेखको लिये हुए यहां आप्तभगवान वद्धमानका स्मरण किया गया है। युक्त्यनुशासनकी प्रथम कारिकामं भी, वीर वर्द्धमानको अपनी स्तुतिका विषय बनाते हुए, स्वामी समन्तभद्र ने इन्हीं तीन विशेषणोंका प्रकारान्तर से निर्देश किया है । वहाँ 'विशीर्ण-दोषाशयपाश-बन्धम' पदके द्वारा जिस गुणका निर्देश किया है उसीके लिये यहां 'निधुतकलिलात्मने' पदका प्रयोग किया है, और यह पद-प्रयोग अपनी खास विशेषता रखता है । इस धर्मशास्त्रमें सर्वत्र पापोंको दूर करनेका उपदेश है और वह उपदेश उन वर्द्धमानस्वामीके उपदेशानुसार है जो तीर्थङ्कर हैं और जिनका धर्मशासन ( तीर्थ ) इस समय भी लोकमें वर्तमान है। और इसलिये धर्मशास्त्रकी आदिमें जहां उनका स्मरण सार्थक तथा युक्तियुक्त हुआ है वहाँ उन्हें 'निर्धतकलिलात्मा'--आत्मासे पाप-मलको दूर करनेवाला-प्रदर्शित करना और भी सार्थक तथा युक्ति-युक्त हुआ है और यह सब ग्रन्थकारमहोदयकी कथनशैलीकी खूबी है-वे आगे-पीछेके सब सम्बन्धोंको ठीक ध्यानमें रखकर ही पद-विन्यास किया करते हैं।