________________
समीचीन-धर्मशास्त्र
[अ०१ wirrrrrrrrrrrrrrrrr श्रात्मा ज्ञानस्वरूप है अथवा ज्ञान आत्माका गुण है जोकि गुणी (आत्मा) में व्यापक ( सर्वत्र स्थित ) होना चाहिये । और ज्ञानसे
आत्माको छोटा मानने पर आत्मप्रदेशोंसे बाहर स्थित (बढ़ा हुआ) ज्ञान गुण गुणी (द्रव्य) के आश्रय बिना ठहरेगा और गुण गुणी (द्रव्य ) के आश्रय बिना कहीं रहता नहीं; जैसा कि 'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः' गुणके इस तत्त्वार्थसूत्र-वर्णित लक्षणसे प्रकट है।
अतः आमा ज्ञानसे बड़ा या छोटा न होकर ज्ञानप्रमाण है, इसमें आपत्ति के लिये जरा भी स्थान नहीं ।
जब आत्मा ज्ञानप्रमाण है और ज्ञान ज्ञेयप्रमाण होनेसे लोकाऽलोक-प्रमाण तथा सर्वगत है तब आत्मा भी सर्वगत हुआ। और इससे यह निष्कर्ष निकला कि आत्मा अपने ज्ञानगुण-सहित सर्वगत (सर्वव्यापक) होकर लोकाऽलोकको जानता है, और इसलिए श्रीवर्द्धमानस्वामी लोकाऽलोकके ज्ञाता होनेसे 'सर्वज्ञ' हैं और वे सर्वगत होकर ही लाकाऽलोकको जानते हैं। परन्तु आत्मा सदा स्वात्म-प्रदेशोंमें स्थित रहता है-संसारावस्थामें आत्माका कोई प्रदेश मूलोत्तररूप आत्म-देहसे बाहर नहीं जाता और मुक्तावस्थामें शरीरका सम्बन्ध सदाके लिये छूट जाने पर आत्माके प्रदेश प्रायः चरमदेहके आकारको लिये हुए लोकके अग्रभागमें जाकर स्थित होते हैं, वहांसे फिर कोई भी प्रदेश किसी समय स्वात्मासे बाहर निकलकर अन्य पदार्थों में नहीं जाता। इसीसे ऐसे शुद्धात्माओं अथवा मुक्तात्माओंको 'स्वात्मस्थित' कहा गया है और प्रदेशोंकी अपेक्षा सर्वव्यापक नहीं माना गया; परन्तु साथ ही 'सर्वगत' भी कहा गया है, जैसा कि 'स्वात्मस्थितः सर्वगतः समस्तव्यापारवेदी विनिवृत्त-संगः' * जैसे वाक्योंसे प्रकट है । तब उनके इस सर्वगतत्वका क्या रहस्य
* देखो, श्रीधनंजयकृत 'विषापहार' स्तोत्र ।