________________
समीचीन-धर्मशास्त्र [अ० १ शक्ति, गुणोत्कर्ष और आदर-सत्कारादि अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है और जिस विशेषणके साथ जुड़ता है उसकी स्थितिके अनुरूप इसके अर्थमें अन्तर, तर-तमता, न्यूनाधिकता अथवा विशेषता रहती है । यहां जिन प्राप्त भगवान् वर्द्धमानके लिये यह पद विशेषणरूपमें प्रयुक्त हुआ है उनकी उस भारती-विभूति अथवा वचन-श्रीका द्योतन करता है जो युक्ति-शास्त्राऽविरोधिनी दिव्यवाणीके रूपमें अवस्थित होती है और जिसे स्वयं त्वामी समन्तभद्रने सर्वज्ञलक्ष्मीसे प्रदीप्त हुई समग्र शोभा-सम्पन्न 'मरम्वती' लिखा है तथा जीवन्मुक्त (अर्हन्न) अवस्थामें जिसकी प्रधानताका उल्लेख किया है । साथ ही, उसके द्वारा दत्त्वार्थोंका कीर्तन (सम्यग्वर्णन) होनेसे उस 'कीर्ति' नाम भी दिया है और वर्द्धमानस्वामीको महती कीर्ति (युक्तिशास्त्राऽविरोधिनी दिव्यवाणी) के द्वारा भृमण्डलपर वृद्धिको-व्यापकता को-प्राप्त हुआ बतलाया है । जिस आईत्यलक्ष्मीसे प्रातभगवान देवमनुष्यादिकी महती समवसरण सभा शोभाको प्राप्त होते हैं। उसका यह दिव्यवाणी प्रधान अङ्ग है, इसीके द्वारा शासनतीर्थ 'श्रीलक्ष्म्यां'......मतौ गिरि । शोभा-त्रिवर्गसम्पत्त्योः ।।'
-अभिधानसंग्रहे, हेमचन्द्र: - बभार पद्मा च सरस्वती च भवान्पुरस्तात्प्रतिमुक्तिलक्ष्म्याः । सरस्वतीमेव समग्रशोभां सर्वज्ञलक्ष्मी-ज्वलितां विमुक्तः ॥२७॥
- स्वयम्भूस्तोत्र X कीर्त्या महत्या भुवि वर्द्धमानं त्या दर्द्धमानं स्तुतिगोचरत्वम् । निनीषवः स्मो दयमद्य वीरं विशी-कोपाराय-पाशबन्धम् ।।
-~~-युक्त्यनुशासन १ + अाहन्त्यलक्ष्म्याः पुनरात्मतन्त्री देवा मुनरोदारसभे रराज ।।
--स्वयम्भूस्तोत्र ७८