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समीचीन-धर्मशास्त्र [अ० १
मूलका मंगलाचरण नमः श्री-बर्द्धमानाय निर्धत-कलिलात्मने । साऽलोकानां त्रिलोकानां यद्विद्या दर्पणायते ॥१॥
‘जिन्होंने आत्मासे पाप-मलको निर्मूल किया है-राग-द्वेषकाम-क्रोधादि-विकार-मूलक मोहनीयादि घातिया कर्मकलङ्कको अपने आत्मासे पूर्णतः दूर करके उसे स्वभावमें स्थिर किया है.---और (इससे) जिनकी विद्या-केवलज्ञान-ज्योति- अलोक-सहित तीनों लोकोंक लिये दर्पणकी तरह आचरण करती है--उन्हें अपनेमें स्पष्टरूपमे प्रतिबिम्बित करती है । अर्थात् जिनके केवलज्ञानमें अलोक-सहित तीनों लोकोंके सभी पदार्थ साक्षातरूपसे प्रतिभासित होते हैं और अपने इस प्रतिभास-द्वारा ज्ञानस्वरूप आत्मामें कोई विकार उत्पन्न नहीं करते.-.... वह दर्पण की तरह निर्विकार बना रहता है-उन श्रीमान् वर्तमानको --भारतीविभूति (दिव्यवारणी) रूप श्रीसे सम्पन्न भगवान् महावीरको -नमस्कार हो।'
व्याख्या---'वर्द्धमान' यह इस युगके आहेत-मत-प्रवर्तक अथवा जैनधर्मके अन्तिम तीर्थङ्करका शुभ नाम है, जिन्हें वीर. महावीर तथा सन्मति भी कहते हैं। कहा जाता है कि आपके गर्भमें आते ही माता-पितादिके धन, धान्य, राज्य, राष्ट्र, बल, कोष, कुटुम्ब तथा दूसरी अनेक प्रकारकी विभूतिकी अतीव वृद्धि हुई थी, जिससे 'वर्द्धमान' नाम रखनेका पहलेसे ही संकल्प होगया था , और इसलिये इन्द्र-द्वारा दिये गये 'वीर' नामके
"जप्पभिई च णं एस दारए कुच्छिसि गम्भताए वक्कते तप्पभिइं च रणं अम्हे हिरण्णेणं वढ्ढामो सुवण्णेणं धणेणं धन्नेणं रज्जेणं र?णं बलेणं वाहणेणं कोसेणं कुट्ठागारेणं पुरेणं अन्तेउरेणं जणवएणं जावसएणं वढ्ढामो विपुलवणकरणग-रयण-मणि-मुत्तिय-संख-सिलप्पवाल-रत्तरयण