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समीचीन-धर्मशास्त्र लाटीसंहितामें दोनों प्रतिमाओं- 'भक्ष्यासन:' 'तपस्यन्' और
के अन्तरकी जो बात कही 'चेलखण्डधरः' विशेषणोंके गई उसका प्रतिवाद १८३ वाच्यका स्पष्टीकरण १६२ सचित्त-विरत-लक्षण १८४ क्षुल्लकादिकी अपेक्षा 'उत्कृष्ट यह पद अप्रासुक वनस्पतिके श्रावक' नामकी विशेषता १६३
भक्षण-त्याग तक सीमित १८४ श्रेयोज्ञाताकी पहिचान १६४ रात्रि-भोजन-विरत-लक्षण १८५ धर्मके फलका उपसंहार १६४ 'सत्वेष्वनुकम्पमानमनाः कीदृष्टि १८५ अन्त्यमंगल
१६५ ब्रह्मचारि-लक्षण १८६ दृष्टिलक्ष्मीके तीन रूपोंकामाङ्गको प्रस्तुत दृष्टिसे
कामिनी,जननी और कन्यादेखनेका महत्व १८६ का विशदीकरण १६६ प्रारम्भविरत-लक्षण १८७ दृष्टिलक्ष्मी अपने इन तीनों आरम्भके दो विशेषण-पदोंकी रूपोंमें जिनेन्द्रके चरणकमलों
दृष्टिका तुलनात्मक विवेचन १८७ अथवा पद-वावयोंकी ओर आरम्भोंमें पंचसूनाओंका ग्रहण बराबर देखा करती है और __ यहाँ विवक्षित है या नहीं १८८ उनसे अनुप्रारिणत होकर सदा परिचित्तपरिग्रहविरत-लक्षण १८६। प्रसन्न एवं विकसित हुआ 'स्वस्थ' और 'सन्तोषपर:' वि- करती है, अतः वह सच्ची
शेषणोंका महत्त्व १६० भक्तिका ही सुन्दर रूप है १६७ अनुमतिविरत-लक्षण १६० सुश्रद्धामूलक सच्ची सविवेकप्रारम्भ, परिग्रह तथा ऐहिक- भक्तिका फल कर्मोके विषयका स्पष्टीकरण युक्त्यनुशासनके अन्त में भी इस
और 'समधी:' पदका महत्व १६० भक्तिका स्मरण,विशेष प्राउत्कृष्टश्रावक-लक्षण १६१ प्तिकी प्रार्थना एवं भावना १६७