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प्रस्तावना
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चित तेजसे प्रदीप्त थे वहाँ आत्महित-साधना और लोकहितकी भावनासे भी श्रोत-प्रोत थे और इसलिये घर-गृहस्थी में अधिक समय तक अटके नहीं रहे थे । वे राज्य - वैभवके मोहमें न फँसकर घर से निकल गये थे, और कांची ( दक्षिणकाशी ) में जाकर 'नग्नाटक' (नग्न) दिगम्बर साधु बन गये थे । उन्होंने एक परिचयपद्य में अपनेको काँचीका 'नग्नाटक' प्रकट किया है और साथ ही 'निर्ग्रन्थजैनवादी' भी लिखा है- भले ही कुछ परिस्थितियोंके वश वे कतिपय स्थानोंपर दो एक दूसरे साधु- वेप भी धारण करनेके लिये बाध्य हुए हैं, जिनका पद्यमें उल्लेख है, परन्तु वे सब अस्थायी थे और उनसे उनके मूलरूप में कर्दमाक्तमणिके समान, कोई अन्तर नहीं पड़ा था - वे अपनी श्रद्धा और संयमभावना में बराबर अडोल रहे हैं । वह पद्य इस प्रकार है—कांच्यां नग्नाटकोऽहं मलमलिनतनुर्लाम्बुशे पाण्डुपिण्डः पुण्ड़ोड़ शाक्यभिक्षुः । दशपुरनगरे मिष्टभोजी परिव्राट् । वाराणस्यामभूवं शशधरधवल: पाण्डुरागस्तपस्वी राजन् यस्याऽस्ति शक्तिः स वदतु पुरतो जैननिर्ग्रन्थवादी ||
यह पद्य भी 'पूर्वं पाटलिपुत्रमध्यनगरे मेरी मया ताडिता' नामके परिचय-पद्य की तरह किसी राजसभा में ही अपना परिचय देते हुए कहा गया है और इसमें भी वादके लिये विद्वानोंको ललकारा गया है और कहा गया है कि 'हे राजन् ! मैं तो वास्तव में जैननिर्मन्थवादी हूँ, जिस किसीकी भी मुझसे वाद करनेकी शक्ति हो वह सामने आकर वाद करे ।'
" इति श्री फरिणमण्डलालंकारस्योरगपुराधिपसूनोः श्रीस्वामिसमन्तभद्रमुने: कृती आप्तमीमांसायाम् ।"
+ यह पद अग्रोल्लेखित जीर्ण गुटकेके अनुसार 'शाकभक्षी ' है ।