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समीचीन-धर्मशास्त्र जिसकी अनेकान्तदृष्टि-द्वारा अनन्य-आराधना करके उन्होंने अपनी वाणीमें वह अतिशय प्राप्त किया था जिसके आगे सभी नतमस्तक होते थे और जो आज भी सहृदय-विद्वानोंको उनकी ओर आकर्षित किये हुए है।
समन्तभद्र, श्रद्धा और गुणज्ञता दोनोंको साथ लिये हुए, बहुत बड़े अर्हद्भक्त थे, अर्हद्गुणोंकी प्रतिपादक सुन्दर-सुन्दर म्तुतियाँ रचनेकी ओर उनको बड़ी रुचि थी और उन्होंने स्तुतिविद्यामें 'सुस्तुत्यां व्यसनं' वाक्यके द्वारा अपनेको वैसी स्तुतियाँ रचनेका व्यसन बतलाया है। उनके उपलब्ध ग्रन्थों में अधिकांश ग्रन्थ स्तोत्रोंके ही रूपको लिए हुए हैं और उनसे उनकी अद्वितीय अहद्भक्ति प्रकट होती है । 'स्तुतिविद्या' को छोड़कर स्वयम्भूस्तोत्र, देवागम और युक्त्यनुशासन ये तीन तो आपके खास स्तुतिग्रन्थ है । इनमें जिस स्तोत्र-प्रणालीसे तत्त्वज्ञान भरा गया है और कठिनसे कठिन तात्त्विक विवेचनोंको योग्य स्थान दिया गया है वह समन्तभद्रसे पहलेके ग्रन्थों में प्रायः नहीं पाई जाती । समन्तभद्रने अपने स्तुतिग्रन्थोंके द्वारा स्तुति विद्याका खास तौरसे उद्धार, संस्कार और विकास किया है, और इसीलिये वे 'स्तुतिकार' कहलाते थे। उन्हें 'आद्यस्तुतिकार' होनेका भी गौरव प्राप्त था। अपनी इस अर्हद्भक्ति और लोकहितसाधनकी उत्कट भावनाओंके कारण वे आगेको इस भारतवर्षमें 'तीर्थङ्कर' होनेवाले हैं, ऐसे भी कितने ही उल्लेख अनेक ग्रन्थों में पाये जाते हैं ® । साथ ही ऐसे भी उल्लेख मिलते हैं जो उनके 'पदचिक' अथवा 'चारणऋद्धि' से सम्पन्न होनेके सूचक हैं ।
+ देखो, 'स्वामी समन्तभद्र' पृ० ६७ 0 देखो, 'स्वामी समन्तभद्र'-'भावितीर्थकरत्व' प्रकरण पृ० ६२ + देखो, 'स्वामी समन्तभद्र'--'गुणादिपरिचय' प्रकरण पृ० ३४