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समीचीन-धर्मशास्त्र
यहाँ तकके इस सब परिचयसे स्वामी समन्तभद्रके असा. धारण गुणों, उनके अनुपम प्रभाव और लोकहित की भावनाको लेकर धर्मप्रचारके लिये उनके सफल देशाटनादिका कितना ही हाल तो मालूम हो गया; परन्तु अभी तक यह मालूम नहीं हो सका कि समन्तभद्रके पास वह कौनसा मोहनमंत्र था जिसके कारण वे सदा इस बातके लिये भाग्यशाली रहे हैं कि विद्वान लोग उनकी वाद-घोपणाओं और उनके तात्त्विक भाषणोंको चुपकेसे सुन लेते थे और उन्हें उनका प्रायः कोई विरोध करते नहीं बनता था । वादका तो नाम ही ऐसा है जिससे चाहेअनचाहे विरोधकी आग भड़कती है । लोग अपनी मानरक्षाके लिये, अपने पक्षको निर्बल समझते हुए भी, उसका समर्थन करनेके लिये खड़े हो जाते हैं और दूसरेकी युक्तियुक्त बातको भी मानकर नहीं देते; फिर भी समन्तभद्रके साथमें यह सब प्रायः कुछ भी नहीं होता था, यह क्यों ? अवश्य ही इसमें कोई खास रहस्य है, जिसके प्रकट होनेकी ज़रूरत है और जिसको जानने के लिये पाठक भी उत्सुक होंगे।
जहाँ तक मैंने इस विषयकी जाँच की है-इस मामले पर गहरा विचार किया है--और मुझे समन्तभद्रके साहित्यादिकपरसे उसका विशेष अनुभव हुआ है उसके आधारपर मुझे इस बातके कहने में ज़रा भी संकोच नहीं होता कि समन्तभद्र
_ 'यह स्पष्ट है कि समन्तभद्र एक बहुत बड़े जैनधर्मप्रचारक थे, जिन्होंने जैन सिद्धान्तों और जैन आचारों को दूर-दूर तक विस्तारके साथ फैलानेका उद्योग किया है, और यह कि जहाँ कहीं वे गये हैं उन्हें दूसरे सम्प्रदायोंकी तरफसे किसी भी विरोधका सामना करना नहीं पड़ा ( He met with no opposition from other sects wherever he went )'