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प्रस्तावना
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अथवा नासमझीके कारण कुछ विरोध खड़ा करता था तो उसे शीघ्र ही निरुत्तर हो जाना पड़ता था।
इस तरह, समन्तभद्र भारतके पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, प्रायः सभी देशोंमें, एक अप्रतिद्वंदी सिंहके समान क्रीड़ा करते हुए, निर्भयताके साथ वादके लिये घूमे हैं। एक बार आप घूमते हुए 'करहाटक' नगरमें भी पहुँचे थे, जो उस समय बहुतसे भटोंसे युक्त था, विद्याका उत्कट स्थान था और साथ ही अल्प विस्तारवाला अथवा जनाकीर्ण था । उस वक्त आपने वहाँ के राजापर अपने वाद-प्रयोजनको प्रकट करते हुए, उन्हें अपना तद्विषयक जो परिचय एक पद्यमें दिया था वह श्रवणबेल्गोलके शिलालेख नं० ५४ में निम्न प्रकारसे संग्रहीत है
पूर्व पाटलिपुत्र-मध्यनगरे भेरी मया ताडिता पश्चान्मालव-सिन्धु ठक्क-विषये कांचीपुरे वैदिशे । प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभटं विद्योत्कटं संकटं वादार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूलविक्रीडितं । इस पद्य में दिये हुए अात्मपरिचयसे यह मालूम होता है कि करहाटक पहुँचनेसे पहले समन्तभद्रने जिन देशों तथा नगरोंमें वादके लिये विहार किया था उनमें पाटलिपुत्र (पटना)नगर, मालव (मालवा ), सिन्धु, ठक्क (पंजाब) देश, कांचीपुर ( कांजीवरम् )
और वैदिश (भिलसा) ये प्रधान देश तथा जनपद थे जहाँ उन्होंने वादकी भेरी बजाई थी और जहाँ पर प्रायः किसीने भी उनका विरोध नहीं किया था * ।
* समन्तभद्रके इस देशाटनके सम्बन्धमें मिस्टर एम० एस० रामस्वामी आय्यंगर अपनी 'स्टडीज इन साउथ इण्डियन जैनिज्म' नाम की पुस्तकमें लिखते हैं