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प्रस्तावना
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प्रतिवादीरूप पर्वत चूर चूर हो गये थे-कोई भी प्रतिवादी उनके सामने नहीं ठहरता था।'समन्तभद्रोऽजनि भद्रमूर्तिस्ततः प्रणेता जिनशासनस्य । यदीय-वाग्वज्र-कठोरपातश्चूर्णीचकार प्रतिवादि-शैलान् ॥ __(१४) तिरुमकूडलुनरसीपुरके शिलालेख नं० १०५ में समन्तभद्रके एक वादका उल्लेख करते हुए लिखा है कि 'जिन्होंने वारागणसी (बनारस) के राजाके सामने विद्वेषियोंको-अनेकान्तशासनस द्वेप रखनेवाले सर्वथा एकान्तवादियोंको-पराजित कर दिया था, वे समन्तभद्र मुनीश्वर किसके स्तुतिपात्र नहीं हैं ?सभीके द्वारा भले प्रकार स्तुति किये जानेके योग्य हैं।'
समन्तभद्रस्संस्तुत्यः कस्य न स्यान्मुनीश्वरः । वाराणसीश्वरस्याग्रे निर्जिता येन विद्विपः॥
(१५) समन्तभद्रके गमकत्व और वाग्मित्व-जैसे गुणोंका विशेष परिचय उनके देवागमादि ग्रन्थोंका अवलोकन करनेसे भले प्रकार अनुभवमें लाया जा सकता है तथा उन उल्लेख-वाक्योंपरसे भी कुछ जाना जा सकता है जो समन्तभद्र-वाणीका कीर्तन अथवा उसका महत्त्व ख्यापन करनेके लिये लिखे गये हैं । ऐसे उल्लेखवाक्य अष्टसहस्री आदि ग्रन्थों में बहुत पाये जाते हैं। कवि नागराजका 'समन्तभद्रभारती-स्तोत्र' तो इसी विषयको लिए हुए एक भावपूर्ण सुन्दर सरस रचना है और वह 'सत्साधुस्मरण-मंगलपाठ' में वीरसेवामन्दिरसे हिन्दी अनुवादके साथ प्रकाशित हो चुका है। यहाँ दो तीन उल्लेखोंको और सूचन किया जाता है, जिससे समन्तभद्रकी गमकत्वादि-शक्तियों और उनके वचन-माहात्म्यका और भी कुछ पता चल सके:
(क) श्रीवादिराजसूरिने, न्यायविनिश्चयालङ्कारमें, लिखा है कि 'सर्वत्र फैले हुए दुर्नयरूपी प्रबल अन्धकारके कारण जिसका