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समीचीन-धर्मशास्त्र है ? उनका अस्तित्व तो समन्तभद्रके सामने कुछ भी महत्त्व नहीं रखता।' वह पद्य, जो कविहस्तिमल्लके 'विक्रान्तकौरव' नाटकमें भी पाया जाता है, इस प्रकार हैअवटु-तटमटति झटिति स्फुट-पटु-वाचाट-धूर्जटेर्जिह्वा । वादिनि समन्तभद्रे स्थितिवति का कथाऽन्येषाम् ॥
यह पद्य शकसंवत १८५० में उत्कीर्ण हुए श्रवणबेल्गोलके शिलालेख नं ५४ (६७) में भी थोड़ेसे पाठ-भेदके साथ उपलब्ध होता है। वहाँ 'धूर्जटेर्जिह्वा' के स्थानपर 'धूर्जटेरपि जिह्वा' और 'सति का कथाऽन्येपां' की जगह 'तव सदसि भूप ! कास्थाऽन्येषां' पाठ दिया गया है, और इसे समन्तभद्रके वादारम्भ-समारम्भसमयकी उक्तियों में शामिल किया है । पद्यके उस रूपमें धूजटिके निरुत्तर होनेपर अथवा धूर्जटिकी गुरुतर पराजयका उल्लेख करके राजासे पूछा गया है कि 'धूर्जटि-जैस विद्वानकी ऐसी हालत होनेपर अब आपकी सभाके दूसरे विद्वानोंकी क्या आस्था है ?क्या उनमंसे काई वाद करने की हिम्मत रखता है ?
(१२) श्रवणबल्गोलके शिलालेख नं० १०५ में समन्तभद्रका जयघोप करते हुए उनके सूक्तिसमूहको-सुन्दर प्रौढ युक्तियोंको लिये हुए प्रवचनको-वादीरूपी हाथियोंको वशमें करनेके लिये 'वज्रांकुश' बतलाया है और साथ ही यह लिखा है कि 'उनके प्रभावसे यह सम्पूर्ण पृथ्वी एक वार दुर्वादुकोंकी वार्तासे भी विहीन होगई थी-उनकी कोई बात भी नहीं करता था ।'-- समन्तभद्रस्स चिराय जीयाद्वादीभ-वज्रांकुश-सूक्तिजालः । यस्य प्रभावात्सकलावनीयं बंध्यास दुर्वादुक-वार्त्तयाऽपि ॥ ___ (१३) श्रवणबेलगोलके शिलालेख नं० १०८ में भद्रमूर्तिसमन्तभद्रको जिनशासनका ‘प्रणेता' (प्रधान नेता) बतलाते हुए यह भी प्रकट किया है कि 'उनके वचनरूपी वनके कठोरपातसे