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प्रस्तावना
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आशा है, इस जाँचके लिये जो इतना परिश्रम किया गया है वह व्यर्थ न जायगा । विज्ञ पाठक इसके द्वारा अनेक स्थितियों, परिस्थितियों और घटनाओंका अनुभव कर जरूर अच्छा लाभ उठाएँगे और यथार्थ वस्तुस्थितिको समझने में बहुत कुछ कृतकार्य होंगे। साथ ही, जिनवाणी माताके भक्तोंसे यह भी आशा की जाती है कि, वे धर्मग्रन्थोंकी ओर अपनी लापर्वाहीको और अधिक दिनों तक जारी न रखकर शीघ्र ही माताकी सच्ची रक्षा, सच्ची खबरगीरी और उसके सच्चे उद्धारका कोई ठोस प्रयत्न करेंगे, जिसमें प्रत्येक धर्मग्रन्थ अपनी अविकल-स्थितिमें सर्वसाधारणको उपलब्ध हो सके।
ग्रन्थकी संस्कृत-टीका इस ग्रन्थपर, 'रत्नकरण्डक-विपमपदव्याख्यान' नामके एक संस्कृतटिप्पणको छोड़कर, जो पाराके जैनसिद्धान्तभवनमें मौजूद है और जिसपरसे उसके कर्त्ताका कोई नामादिक मालूम नहीं होता, संस्कृतकी * सिर्फ एक ही टीका अभी तक उपलब्ध हुई है, जो प्रभाचन्द्राचार्यकी बनाई हुई है। इसी टीकाकी वावत, पिछले पृष्ठोंमें, मैं बराबर कुछ न कुछ उल्लेख करता आया हूँ
* कनड़ी भापामें भी इस ग्रन्थपर कुछ टीकाएँ उपलब्ध हैं परन्तु उनके रचयिताओं आदिका कुछ हाल मालूम नहीं हो सका। तामिल भाषाका 'अरुंगलछेप्पु' ( रत्नकरण्डक ) ग्रन्थ इस ग्रन्थको सामने रखकर ही बनाया गया मालूम होता है और कुछ अपवादोंको छोड़कर इसीका ही प्रायः भावानुवाद अथवा सारांश जान पड़ता है । ( देखो, अँग्रेजी जैनगजटमें प्रकाशित उसका अंग्रेजी अनुवाद ) परन्तु वह कब बना और किसने बनाया इसका कोई पता नहीं चलता-टीका उसे कह नहीं सकते। हिन्दीमें पं० सदासुखजीका भाष्य ( स्वतन्त्र व्याख्यान) प्रसिद्ध ही है ।