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समीचीन-धर्मशास्त्र ___ “साम्प्रतं योऽसौ सल्लेखनानुष्ठाता श्रावकस्तस्य कति प्रतिमा भवन्तीत्याशंक्याह
श्रावकपदानि देवैरेकादश देशितानि येषु खलु ।
स्वगुणाः पूर्वगुणैः सह सन्तिष्ठन्ते क्रमविवृद्धाः ॥' __ इस अवतरणमें 'श्रावकपदानि' नामका उत्तर अंश तो मूलग्रन्थका पद्य है और उससे पहला अंश टीकाकारका वह वाक्य है जिसे उसने उक्त पद्य को देते हुए उसके विषयादिकी सूचना रूपसे दिया है । इस वाक्यमें लिखा है कि 'अब सल्लेखनाका अनुष्ठाता जो श्रावक है उसके कितनी प्रतिमाएँ होती हैं इस बातकी
आशंका करके आचार्य कहते हैं।' परन्तु आचार्यमहोदयके उक्त पद्यमें न तो वैसी कोई आशंका उठाई गई है और न यही प्रतिपादन किया गया है कि वे ग्यारह प्रतिमाएँ सल्लेखनानुष्ठाता श्रावकके होती हैं; बल्कि 'श्रावकपदानि' पदके प्रयोग-द्वारा उसमें सामान्यरूपसे सभी श्रावकोंका ग्रहण किया है-अर्थात् यह बतलाया है कि श्रावकलोग ग्यारह श्रेणियों में विभाजित हैं । इसके सिवाय, अगले पद्याम, श्रावकोंके उन ग्यारह पदोंका जो अलगअलग स्वरूप दिया है उसमें सल्लेखनाके लक्षणकी कोई व्याप्ति अथवा अनुवृत्ति भी नहीं पाई जाती-सल्लेखनाका अनुष्ठान न करता हुआ भी एक श्रावक अनेक प्रतिमाओंका पालन कर सकता है और उन पदोंसे विभूषित हो सकता है । इसलिये टीकाकारका उक्त लिखना मूलग्रन्थके आशयके प्रायः विरुद्ध जान पड़ता है। दूसरे प्रधान ग्रन्थोंसे भी उसका कोई समर्थन नहीं होता-प्रतिमाओंका कथन करनेवाले दूसरे किसी भी आचार्य अथवा विद्वानके ग्रन्थों में ऐसा विधान नहीं मिलता जिससे यह मालूम होता हो कि ये प्रतिमाएँ सल्लेखनानुष्ठाता श्रावकके ग्यारह भेद हैं। प्रत्युत इसके, ऐसा प्रायः देखने में आता है कि इन सभी श्रावकोंको मरणके निकट आने पर सल्लेखनाके सेवनकी प्रेरणा