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समीचीन-धर्मशास्त्र
त्रयं' रूपसे एक साथ उद्धृत किया है । भाऊ बाबाजी लट्ठ द्वारा प्रकाशित रत्नकरण्डश्रावकाचारकी प्रस्तावनादिसे ऐसा मालूम होता है कि कनड़ी लिपिकी २०० श्लोकों बाली प्रतिमें 'भैषज्यदानतो' नामक पद्यके बाद यह पद्य भी दिया हुआ है
शास्त्रदानफलेनात्मा कलासु सकलास्वापि ।
परिज्ञाता भवेत्पश्चात्केवल ज्ञानभाजनं ॥१॥ सम्भव है कि 'श्रीपेण' नामक मूल पद्य को साथ लेकर ये तीनों पटा ही 'उक्तं च त्रयं' शब्दोंके वाच्य हो, और 'शास्त्रदान' नामका यह पद्य कनड़ी टीकाकी इन प्रतियों में छूट गया हो।
(४) भवनकी चौथी ६२६ नम्बरवाली प्रति भी कनड़ीटीकासहित है । इसकी हालत प्रायः तीसरी प्रति जैसी है, विशेपता सिर्फ इतनी ही यहाँ उल्लेखयोग्य है कि इसमें १७४ नम्बरवाले पद्यके साथ 'उक्तं च' शब्द नहीं दिये और १७२ नम्बरवाले पद्यके साथ 'उक्तं च' की जगह 'उक्तं च त्रयं' शब्दोंका प्रयोग किया है परन्तु उनके बाद श्लोक वही एक दिया है। इसके सिवाय इस टीकामें ६० नम्बरवाले पदको ‘उक्तं च', ७१ से ७६ नम्बरवाले छह पद्योंको 'उक्तं च षटक' और १६२, १६३ नम्बरवाले दो पद्योंको 'उक्तं च द्वयं' लिखा है। और इन : पद्योंका वह उल्लेख तीसरी प्रतिसे इस प्रतिमें अधिक है।
(५) चारों प्रतियोंके इस परिचय से 3 साफ जाहिर है कि उक्त दोनों मूल प्रतियोंमें परस्पर कितनी विभिन्नता है। एक प्रतिमें जो श्लोक टिप्पणादिके तौर पर दिये हुए हैं, दूसरीमें वे ___ यह परिचय उस नोट परसे दिया गया है जो ३१ अक्टूबर सन् १९२० को जैनसिद्धान्तभवन आराका निरीक्षण समाप्त करते हुए मैंने पं० शान्तिराजजीकी सहायतासे तय्यार किया था।