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प्रस्तावना
फिर कोष्टकमें कर दिया है। उन छहों पद्योंका इस प्रतिमें 'मद्यमांस' नामके ६६ वें पद्यके बाद 'उक्तं च' रूपसे दिया है
और उनके बाद 'पंचाणुव्रत' नामके ६३ - मूल पद्यको फिरसे उद्धृत किया है।
(३) भवनकी तीसरी ६४१ नम्बरवाली प्रति कनडीटीकासहित है । इसमें पहली मूल प्रतिवाले वे सब चालीस पद्य , जो ऊपर उद्धृत किये गये हैं, अपने अपने पूर्वसूचित स्थान पर और उसी क्रमको लिये हुए, टीकाके अंगरूपसे पाये जाते हैं । सिर्फ 'द्यूतं च मांसं' नामके पद्य नं०१६६ की जगह टीकामें उसी प्राशय का यह पद्य दिया हुआ है
द्यतं मांसं सुरा वेश्या पापर्द्धिः परदारता ।
स्तेयेन सह सप्तेति व्यसनानि विदूरयेत् ।। इसके सिवाय इतनी विशेषता और भी है कि पहली मूल प्रतिमें सिर्फ पाँच पद्योंके साथ ही 'उक्तं च,' 'उक्तं च त्रयं' शब्दोंका संयोग था। इस प्रतिमें उन पद्योंके अतिरिक्त दुसरे और भी २१ पद्योंके साथ वैसे शब्दोंका संयोग पाया जाता है अर्थात् नं० १०१ से १०५ तकके पाँच पद्योंको 'उक्तं च पंचक,' १३५ * से १३७ नम्बर वाले तीन पद्योंको 'उक्तं च.' १६५ से १६७ नम्बर वाले तीन पद्योंको 'उक्तं च त्रयं' १७२, १७४, १७६ नम्बर वाले पद्योंको जुदा-जुदा 'उक्तं च,' १७६ से १८१ नम्बर वाले तीन पद्योंको 'उक्तं च त्रयं' और १८४ सं १८७ नंबर वाले चार पद्योंको 'उक्तं च चतुष्टयं' शब्दोंके साथ उद्धृत किया है । साथ ही, इस टीका तथा दूसरी टीकामें भी 'भपज्यदानतो' नामके पद्य के माथ 'श्रीपेण' और 'देवाधिदेव' नामके पद्योंको भी 'उक्तं च
३० १३५ और १३६ नम्बरवाले पद्य रत्नकरण्डकी संस्कृतटीकामें भी 'तदुक्त' आदि रूपमे उद्धत किये गये हैं।