________________
प्रस्तावना
६५
किया गया है । एक ही व्यक्तिकी कथासे कई कई विषयोंके उदाहरण भी निकलते हैं- जैसे वारिषेणकी कथासे स्थितीकरण अंग तथा चौर्यव्रतका और अनन्तमतीकी कथा से ब्रह्मचर्यव्रत तथा निःकांक्षित अंगका । इसी तरहपर कुछ ऐसी भी कथाएँ उपलब्ध हैं जिनके दृष्टान्तों का प्रयोग विभिन्न रूपसे पाया जाता है। इसी ग्रन्थ में सत्यघोपकी जिस कथाको असत्य भाषणका दृष्टान्त बनाया गया है 'भगवती आराधना' और 'यशस्तिलक' में उसीको चोरीके सम्बन्ध में प्रयुक्त किया गया है। इसी तरह विष्णुकुमारकी कथाको कहीं-कहीं 'वात्सल्य' अंग में न देकर 'प्रभावना' अंगमें दिया गया है ।।
कथा-साहित्य की ऐसी हालत होते हुए और एक नामके अनेक व्यक्ति होते हुए भी स्वामी समन्तभद्र - जैसे सतर्क विद्वानोंसे, जो अपने प्रत्येक शब्दको बहुत कुछ जाँच - तोलकर रखते हैं यह आशा नहीं की जा सकती कि वे उन दृष्टान्तोंके यथेष्ट मार्मिक अंशका उल्लेख किये बिना ही उन्हें केवल उनके नामोंसे ही उदधृत करनेमें सन्तोप मानते, और जो दृष्टान्त सर्वमान्य नहीं उसे भी प्रयुक्त करते, अथवा बिना प्रयोजन ही किसी ख़ास दृष्टान्तको दूसरों पर महत्व देते ।
( ३ ) यदि ग्रन्थकार महोदयको, अपने ग्रन्थ में दृष्टान्तों का उल्लेख करना ही इष्ट होता तो वे प्रत्येक व्यक्तिके कार्यकी गुरुता और उसके फलके महत्वको कुछ जँचे-तुले शब्दों में जरूर दिखलाते | साथ ही, उन दूसरे विषयोंके उदाहरणोंका भी, उसी प्रकारसे, उल्लेख करते जो प्रन्थ में अनुदाहृत स्थितिमें पाये जाते हैं - अर्थात्, जब अहिंसादिक व्रतोंके साथ उनके प्रतिपक्षी हिंसादिक पापों के भी उदाहरण दिये गये हैं तो सम्यग्दर्शनके निःशं
+ देखो, 'अरु 'गल छेप्पु' नामक तामिल भाषाका ग्रन्थ, जो सन् १९२५ से पहले अंग्रेजी जैनगजटमें अनुवादसहित, मुद्रित हुआ है ।
2