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प्रोषधोपवासका अर्थ 'कृद्भुक्तिपूर्वक उपवास' किया गया हो । प्रोपधका अर्थ 'सकृद्भुक्ति' नहीं है, यह बात खुद स्वामी समन्तभद्रके निम्न वाक्यसे भी प्रकट होती हैं जो इसी ग्रन्थ में बादको 'प्रोपोपवास' प्रतिमाका स्वरूप प्रतिपादन करनेके लिये दिया गया है-
प्रस्तावना
पर्वदिनेषु चतुर्ष्वपि मासे मासे स्वशक्तिमनिगुह्य । प्रोषधनियमविधायी प्रणिधिपरः प्रोषधानशनः ॥ इससे 'चतुराहारविसर्जन' नामका उक्त पद्य स्वामी समन्तभद्रके उत्तर कथन के भी विरुद्ध है, यह स्पष्ट हो जाता है । ऐसी हालत में -- प्रथके पूर्वोत्तर कथनोंसे भी विरुद्ध पड़नेके कारणइस पद्यको स्वामी समन्तभद्रका स्वीकार करने में बहुत अधिक संकोच होता है । आश्चर्य नहीं जो यह पद्य प्रभाचन्द्रीय टीकासे पहले ही, किसी तरह पर, ग्रंथ में प्रक्षिप्त हो गया हो और टीकाकारको उसका स्नयाल भी न हो सका हो ।
अब मैं उन पद्यों पर विचार करता हूँ जो अधिकाश लोगोंकी शंकाका विषय बने हुए हैं। वे पद्य दृष्टान्तोंके पथ हैं और उनकी संख्या प्रन्थ में छह पाई जाती हैं । इनमें से ' तावदंजन' और 'ततो जिनेन्द्रभक्त' नामके पहले दो पद्य में सम्यग्दर्शनके निःशंकितादि अष्ट अंगों में प्रसिद्ध होनेवाले आठ व्यक्तियोंके नाम दिये हैं । 'मातंगों धनदेवश्च' नामके तीसरे पद्य में पाँच व्यक्तियोंके नाम देकर यह सूचित किया है कि इन्होंने उत्तम पूजातिशयको प्राप्त किया है । परन्तु किस विषय में ? इसका उत्तर पूर्व पयसे सम्बन्ध मिलाकर यह दिया जा सकता है कि - सादि पंचारतोंके पालन - विषय में | इसके बाद ही 'धनश्री' नामक पद्य में पाँच नाम और देकर लिखा है कि उन्हें भी क्रमश: उसी प्रकार उपाख्यानका विषय बनाना चाहिये । परन्तु इनके उपाख्यानका क्या विषय होना चाहिये अथवा ये किस विषय के