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प्रस्तावना
ऊपर नम्बर (२) पर उद्धृत है । इस पद्यमें भी प्रोषधोपवासका लक्षण बतलाया गया है । और उसमें भी वही चार प्रकारके
आहार-त्यागकी पुनरावृत्ति की गई है। मालूम नहीं, यहाँ पर यह पद्य किस उद्दशसे रक्खा गया है । कथनक्रमको देखते हुए, इस पद्यकी स्थिति कुछ संदिग्ध जरूर मालूम होती है । टीकाकार भी उसकी इस स्थितिको स्पष्ट नहीं कर सके । उन्होंने इस पद्यको देते हुए सिर्फ इतना ही लिखा है कि
'अधुना प्रोषधोपवासस्तल्लक्षणं कुर्वन्नाहअर्थात--अब प्रोषधोपवासका लक्षण करते हुए कहते हैं। परन्तु प्रोषधोपवासका लक्षण तो दो ही पद्य पहले किया और कहा जा चुका है, अब फिरसे उसका लक्षण करने तथा कहनेकी क्या जरूरत पैदा हुई, इसका कुछ भी स्पष्टीकरण अथवा समाधान टीकामें नहीं है । अस्तु: यदि यह कहा जाय कि इस पद्यमें 'प्रोपध' और 'उपवास' का अलग-अलग स्वरूप दिया है-चार प्रकारके आहारत्यागको उपवास और एक बार भोजन करनेको 'प्रोषध' ठहराया है-और इस तरह पर यह सूचित किया है कि प्रोषधपूर्वक-पहले दिन एक बार भोजन करके--जो अगले दिन उपवास किया जाता है--चार प्रकारके श्राहारका त्याग किया जाता है-उसे प्रोपोपवास कहते हैं. तो इसके सम्बन्धमें सिफ इतना ही निवदन है कि प्रथम तो पद्यक पूर्वाधम भले ही उपवास और प्राषधका अलग-अलग स्वरूप दिया हो परन्तु उसके उत्तरासे यह ध्वनि नहीं निकलती कि उसमें प्रापधपूर्वक उपवासका नाम 'प्रोपधापवास' बतलाया गया है । उसके शब्दोंसे सिर्फ इतना ही अर्थ निकलता है कि उपोपण ( उपवास ) पूर्वक जो आरंभाचरण किया जाता है उसे 'प्रोपधोपचास' कहते हैंबाकी धारणक और पारणकके दिनों में एकमुक्तिकी जो कल्पना टीकाकारने की है वह सब उसकी अतिरिक्त कल्पना मालूम