________________
५६
प्रस्तावना मालूम हो जाता है और यह भी स्पष्ट हो जाता है कि इस व्रतवालेके मद्यादिकका परिमाण नहीं होता, बल्कि उनका सर्वथा त्याग होता है। ऐसी हालतमें यह पद्य खंडरूपसे व्रतोंके अनुष्ठानकी एक दृष्टिको लिये हुए होनेसे संदेहकी दृष्टिसे देखे जानेके योग्य मालूम नहीं होता।
कुछ लोग उक्त अष्टमूलगुणवाले पद्यको ही 'क्षेपक' समझते हैं परन्तु इसके समर्थनमें उनके पास कोई हेतु या प्रमाण नहीं है । शायद उनका यह खयाल हो कि इस पद्यमें पंचागुव्रतोंको जो मूलगुणोंमें शामिल किया है वह दूसरे ग्रन्थोंके विरुद्ध है, जिनमें अणुव्रतोंकी जगह पंच उदम्बरफलोंके त्यागका विधानपाया जाता है, और इतने परसे हो वे लोग इस पद्यको संदेहकी दृष्टिने देखने लगे हों। यदि ऐसा है तो यह उनकी निरी भूल है । देशकालकी परिस्थिनिके अनुसार आचार्योका मतभेद परस्पर होता आया है * । उमकी वजहसे कोई पद्य क्षेपक करार नहीं दिया जा सकता ! भगवजिनसेन आदि और भी कई आचार्योने अगुव्रतोंको मृलगुगामें शामिल किया है । पं० आशाधरजीने अपने मागारधर्मामृत और उसकी टीकामें समन्तभद्रादिके इस मतभेदका उल्लेख भी किया है। वास्तवमें सकलव्रती मुनियोंके मूलगुणाम जिस प्रकार पंच महाव्रतोंका होना जरूरी है उसी प्रकार देशत्रती श्रावकोंके मूलगुणोंमें पंचाणुव्रतोंका होना भी ज़रूरी मालूम होता है। देशवती श्रावकोंको लक्ष्य करके ही आचार्यमहोदयने इन मूल गुणांकी सृष्टि की है। पंच उदुम्बरवाले मूलगुण प्रायः बालकोंको-अवतियों अथवा अनभ्यस्त देशसंयमियोंको लक्ष्य करके लिखे गये हैं; जैसा कि शिवकोटि आचार्यके निम्न वाक्यसे प्रकट है
ॐ इसके लिये देखो 'जैनाचार्योंका शासन भेद' नामका मेरा वह निबन्ध जो जैनग्रन्थ-रत्नाकर-कार्यालय बम्बईसे प्रकाशित हुआ है।