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समीचीन-धर्मशास्त्र
समझी गई कि धनदेवकी सत्यताको राजाने कैसे प्रमाणित किया,
और बिना उसको सूचित किये वैसे ही राजासे उसके हकमें फैसला दिला दिया गया ! असत्यभापणका दोप दिखलाने के लिये जो सत्यघोपकी कथा दी गई है उसमें उसे चोरीका ही अपराधी ठहराया है, जिससे यह दृष्टान्त, असत्यभाषणका न रहकर, दूसरे ग्रन्थोंकी तरह चोरीका ही बन गया है । और इस तरह पर इन सभी कथाओंमें इतनी अधिक त्रुटियाँ पाई जाती हैं कि उन पर एक खासा विस्तृत निबन्ध लिखा जा सकता है । परन्तु टीकाकारमहाशय यदि इन दृष्टान्तोंको अच्छी तरहसे खिला नहीं सके, उनके मार्मिक अंशांका उल्लेख नहीं कर सके
और न त्रुटियोंको दूर करके उनकी कथाओंको प्रभावशालिनी ही बना सके है, तो यह सब उनका अपना दाप है । उसकी वजहसे मूल ग्रन्थ पर कोई आपत्ति नहीं की जा सकती। और न मूल आख्यान वैसे कुछ निःसार अथवा महत्त्वशून्य ही हो सकते हैं जैसा कि टीकामें उन्हें बता दिया गया है । इसीसे मेरा यह कहना है कि इस ७ वी आपत्ति में कुछ भी बल नहीं है।
छठी आपत्तिके सम्बन्धमं यह कहा जा सकता है कि पामें जिस 'जय' का उल्लेख है वह सुलोचनाके पतिसे भिन्न कोई दूसरा ही व्यक्ति होगा अथवा दूसरे किसी प्राचीन पुराणमें जयको, परदारनिवृत्ति व्रतकी जगह अथवा उसके अतिरिक्त, परिग्रहपरिमाणव्रतका व्रती लिखा होगा । परन्तु पहली अवस्थामें इतना जरूर मानना होगा कि वह व्यक्ति टीकाकारके समयमें भी इतना अप्रसिद्ध था कि टीकाकारको उसका बोध नहीं हो सका और इसलिये उसने मुलोचनाके पति 'जय' को ही जैसेतैसे उदाहृत किया है। दूसरी हालतमें, उदाहृत कथा परसे, टीकाकारका उस दूसरे पुराणग्रन्थसे परिचित होना संदिग्ध