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समीचीन-धर्मशास्त्र
आबिभ्य देवता चैवं शीलवत्याः परे न के । ज्ञात्वा तच्छीलमाहात्म्यं गत्वा स्वस्वामिनं प्रति ॥२७॥ प्राशंसत्सा तयोस्ताङमाहात्म्यं सोऽपि विस्मयात् । रविप्रभः समागत्य तावुभौ तद्गुणप्रियः ॥२७२॥ स्ववृत्तान्तं समाख्याप युवाभ्यां क्षम्यतामिति । पूजयित्वा महारत्न कलोकं समीयिवान् ॥२७३॥
-पर्व ४७वाँ श्रीजिनसेनाचार्य-प्रणीत हरिवंशपुराणमें भी, निम्नलिखित दो पद्यों-द्वारा, 'जय' के शीलमाहात्म्यको ही सूचित किया है
शक्रप्रशंसनादेत्य रतिप्रभसुरण सः । परीक्ष्य स्वस्त्रिया मेरावन्यदा पूजितो जयः ॥१३०॥ सर्वासामेव शुद्धीनां शीलशुद्धिः प्रशस्यते । शीलशुद्धिर्विशुद्धानां किंकरास्त्रिदशा नृणाम् ॥१३१॥
-सर्ग १२वाँ इस तरह पर जयका उक्त दृष्टान्तरूपसे उल्लेख उसके प्रसिद्ध आख्यानके विरुद्ध पाया जाता है और इससे भी पद्यकी स्थिति संदिग्ध होजाती है।
(७) इन पद्योंमें दिये हुए दृष्टान्तोंको टीकामें जिस प्रकारसे उदाहृत किया है, यदि सचमुच ही उनका वही रूप है और वही उनसे अभिप्रेत है तो उससे इन दृष्टान्तोंमें ऐसा कोई विशेष महत्त्व भी मालूम नहीं होता, जिसके लिये स्वामी समन्तभद्रजैसे महान श्राचार्योंको उनके नामोल्लेखका प्रयत्न करनेकी ज़रूरत पड़ती। वे प्रकृत-विषयको पुष्ट बनाने अथवा उसका प्रभाव हृदय पर स्थापित करनेके लिये पर्याप्त नहीं हैं। कितने ही दृष्टान्त