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प्रकार इस कारिकामें भी वीतराग मुनि और विद्वान् ऐसे दो अबन्धक व्यक्तियोंमें बन्धका प्रसङ्ग उपस्थित करके स्व (निज) में दुःख-सुख के उत्पादनका निमित्तमात्र होनेसे पुण्य पापके बन्धकी एकान्त मान्यताको सदोष बतलाया है; जैसा कि असहस्रीकार श्रीविद्यानन्दाचार्य के निम्न टीका वाक्यसे भी प्रकट है
प्रस्तावना
"स्वमि: खोत्पादनात् पुण्यं सुखोत्पादनात्तु पापमिति यदीष्यते तदा वीतरागो विद्वांश्च मुनिस्ताभ्यां पुण्यपापाभ्यामात्मानं युञ्ज्यान्निमित्तसद्भावात्, वीतरागस्य कायक्लेशादिरूपदुःखोत्पत्तेर्विदुषस्तत्त्वज्ञानसन्तोपलक्षण सुखोत्य तेस्तन्निमित्तत्वात् ।"
इसमें वीतरागकं कायक्लेशादिरूप दुःखकी उत्पत्तिको और विद्वानके तत्त्वज्ञान-सन्तोष लक्षण सुखकी उत्पत्तिको अलग २ बतलाकर दोनों ( वीतराग और विद्वान् ) के व्यक्तित्वको साफ तौर पर अलग घोषित कर दिया है। और इसलिए वीतरागका अभिप्राय यहाँ उस छद्मस्थ वीतरागी मुनिस है जो राग-द्वेषकी निवृत्तिरूप सम्यक् चारित्र के अनुष्ठानमें तत्पर होता है— केवलीसे नहीं --- और अपनी उस चारित्र - परिणतिके द्वारा बन्धको प्राप्त नहीं होता । और विद्वानका अभिप्राय उस सम्यग्दृष्टि अन्तरात्मा * से है जो तत्त्वज्ञान के अभ्यास द्वारा सन्तोष-सुखका अनुभव करता है और अपनी उस सम्यग्ज्ञान - परिणतिके निमित्तसे बन्धको प्राप्त नहीं होता । वह अन्तरात्मा मुनि भी हो सकता है और
* अन्तरात्माके लिये 'विद्वान्' शब्दका प्रयोग प्राचार्य पूज्यपादने अपने समाधितन्त्रके ' त्यक्त्वारोपं पुनविद्वान् प्राप्नोति परमं पदम् ' इस वाक्यमें किया है और स्वामी समन्तभद्रने ' स्तुत्यान त्वा विद्वान् सततमभिपूज्यं नमिजिनम्' तथा 'त्वमसि विदुषां मोक्षपदवी' इन स्वयम्भूस्तोत्र के वाक्योंद्वारा जिन विद्वानोंका उल्लेख किया है वे भी अन्तरात्मा ही हो सकते हैं ।