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प्रस्तावना
निश्चित हो सके कि स्वामी समन्तभद्रने इसे इतने श्लोकपरिमाण निर्माण किया था, न ग्रन्थकी सभी प्रतियोंमें एक ही श्लोकसंख्या पाई जाती है बल्कि कुछ प्रतियाँ ऐसी भी उपलब्ध होती हैं जिनमें श्लोकसंख्या डेढसो (१५०) से भी बढ़ी हुई है
और इसमें तो कोई सन्देह ही नहीं कि टीका-टिप्पणवाली प्रतियों परसे किसी मूल ग्रन्थकी नकल उतारते समय, लेखकोंकी असावधानी अथवा नासमझीके कारण, कभी-कभी उन प्रतियों में 'उक्तं च रूपसे दिये हुए अथवा समर्थनादिके लिये टिप्पणी किये हुए-हाशिये ( Margin ) पर नोट किये हुए-दूसरे ग्रन्थों के पद्य भी मूल ग्रन्थमें शामिल हो जाते हैं; और इसीसे कितने ही ग्रन्थोंमें 'क्षेपक पाये जाते हैं । इसके सिवाय प्रकृत ग्रन्थमें कुछ पद्य ऐसी अवस्थामें भी अवश्य है कि यदि उन्हें ग्रन्थसे पथक कर दिया जाय तो उसने शेप पद्योंके क्रम तथा विषयसम्बन्धमें परम्पर कोई बाधा नहीं आती और न कुछ अन्तर ही पड़ता है।। ऐसी हालतमें ग्रन्थके कुछ पद्यों पर सन्देहका होना अस्वाभाविक नहीं है । परन्तु ये सब बातें किसी ग्रन्थप्रतिमें 'क्षेपक' होनेका कोई प्रमाण नहीं हो सकतीं। ___ और इसलिये इतने परसे ही, बिना किसी गहरी खोज और जाँचके, सहसा यह नहीं कहा जा सकता कि इस ग्रन्थकी वर्तमान
* इस विषयके एक उदाहरण के लिये देखो 'पूज्यपाद-उपासकाचारकी जाँच' वाला मेरा लेख, जो जनहितैषी भाग १५ के अंक १२ वे में प्रकाशित हुअा है । 'दशभक्ति' नामका एक ग्रन्थ शोलापुरसे, संस्कृतटीका और मराठी अनुवाद सहित, प्रकाशित हुआ है । उससे मालूम होता है कि दशभक्तियोंके मूलपाठोंमें भी कितने ही क्षेपक शामिल हो रहे है । यह सब नासमझ और असावधान लेखकोंकी कृपाका ही फल है।
जैसे कि कथाओंका उल्लेख करने वाले 'तावदंजनचौरोऽङ्ग' यादि
पद्य ।