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प्रस्तावना
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के प्रसाद से प्राप्त न हो सकती हो ? कोई भी नहीं । और इसलिये कुलैश्वर्यादि-विहीन धर्मात्मा लोग कदापि तिरस्कार के योग्य नहीं होते । यहाँ २६ वें पद्य में 'अन्य सम्पत्' और २७ वें पद्य में 'अन्य सम्पदा पद खास तौरसे ध्यान देने योग्य हैं । इनमें 'अन्य' और 'अन्य' विशेषणों का प्रयोग उस कुलैश्वर्यादि-सम्पत्तिको लक्ष्य करके किया गया है जिसे पाकर मूढ लोग मद करते हैं और जिनके उस मका उल्लेख २५, २६ नम्बर के पद्योंमें किया गया है और इससे इन सब पद्योंका भले प्रकार एक सम्बन्ध स्थापित होता है । अतः उक्त २७ वाँ पद्य असम्बद्ध नहीं है ।
कुछ विद्वानोंका खयाल है कि सम्यग्दर्शनकी महिमावाले पद्यों में कितने ही पद्य क्षेपक हैं, उनकी रायमें या तो वे सभी पद्य क्षेपक हैं जो छंद - परिवर्तनको लिये हुए - ३४वें पद्यके बाद अध्ययन (परिच्छेद) के अन्त तक - पाये जाते हैं और नहीं तो वे पद्य क्षेपक ज़रूर होने चाहिये जिनमें उन्हें पुनरुक्तियाँ मालूम देती हैं ।
इसमें सन्देह नहीं कि ग्रन्थ में ३४वें पद्यके बाद अनुष्टुपकी जगह आर्या छन्द बदला है । परन्तु छन्दका परिवर्तन किसी पद्य - को क्षेपक करार देनेके लिये कोई गारंटी नहीं होता । बहुधा ग्रंथोंमें इस प्रकारका परिवर्तन पाया जाता है-खुद स्वामी समन्तभद्र के 'जिनशतक' और 'स्वयम्भूस्तोत्र' ही इसके खासे उदाहरण हैं जिनमें किसी-किसी तीर्थंकरकी स्तुति भिन्न छन्दमें ही नहीं किन्तु एक से अधिक छन्दोंमें भी की गई है । इसके सिवाय, यहाँ पर जो छन्द बदला है वह दो एक अपवादोंको छोड़कर बराबर ग्रन्थके अन्त तक चला गया है—प्रन्थके बाकी सभी अध्ययनों की रचना प्रायः उसी छन्दमें हुई है - और इसलिये छन्दाधारपर उठी हुई इस शंका में कुछ भी बल मालूम नहीं होता । हाँ, पुनरुक्तियों की बात ज़रूर विचारणीय है, यद्यपि केवल पुनरुक्ति भी किसी पद्यको क्षेपक नहीं बनाती तो भी इस कहने में मुझे जरा भी