________________
समीचीन-धर्मशास्त्र तत्तद्विषयक मदपरिणतिको दूर करनेके लिये कैसे और किस प्रकारके विचारों-द्वारा समर्थ हो सकते हैं। धर्मात्मा वही होता है जिसके पापका निरोध है-पापास्रव नहीं होता। विपरीत इसके, जो पापास्रवसे युक्त है उसे पापी अथवा अधर्मात्मा समझना चाहिये । इस पद्यमें यह बतलाया गया है कि जिसके पास पापके निरोधरूप धर्मसंपत्ति अथवा पुण्यविभूति मौजूद है उसके लिये कुलेश्वर्यादिकी सम्पत्ति कोई चीज़ नहीं-अप्रयोजनीय है-उसके अन्तरंगमें उससे भी अधिक तथा विशिष्टतर सम्पत्तिका सद्भाव है, जो कालांतरमें प्रकट होगी और इसलिये वह तिरस्कारका पात्र नहीं । इसी तरह जिसकी आत्मामें पापानव बना हुआ है उसके कुलेश्वर्यादि सम्पत्ति किसी कामकी नहीं । वह उस पापास्रवके कारण शीघ्र नष्ट हो जायगी और उसके दुर्गतिगमनादिकको रोक नहीं सकेगी। ऐसी सम्पत्तिको पाकर मद करना मूर्खता है । जो लोग इस सम्पूर्ण तत्त्वको समझते हैं वे कुलेश्वर्यादिविहीन धर्मात्माओंका कदापि तिरस्कार नहीं करते। अगले दो पद्योंमें भी इसी भावको पुष्ट किया गया है-यह समझाया गया है कि, एक मनुष्य जो सम्यग्दर्शनरूपी धर्मसम्पत्तिसे युक्त है वह चाण्डालका पुत्र होने पर भी-कुलादि-सम्पत्तिमे अत्यन्त गिरा हुआ होने पर भी-तिरस्कारका पात्र नहीं होता। उसे गणधरादिक देवोंने 'देव' कहा है-आराध्य बतलाया है। उसकी दशा उस अंगारके सदृश होती है जो वाह्यमें भस्मसे आच्छादित होने पर भी अन्तरंगमें तेज तथा प्रकाशको लिये हुए है
और इसलिये कदापि उपेक्षणीय नहीं होता । मनुष्य तो मनुष्य, एक कुत्ता भी धर्मके प्रतापसे सम्यग्दर्शनादिक माहात्म्यसे-देव बन जाता है और पापके प्रभावसे-मिथ्यात्वादिके कारण-एक देव भी कुत्ते का जन्म ग्रहण करता है । ऐसी हालतमें दूसरी ऐसी कौनसी सम्पत्ति है जो मनुष्योंको अथवा संसारी जीवोंको धर्म