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प्रस्तावना
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" ह्या पुस्तकाच्या प्रती कर्नाटकांत वगैरे आहेत त्यांत कांहीं उक्त'च म्हणून श्लोक घातलेले आहेत ते श्लोक समंतभद्र प्राचार्याचे रचलेले नसून दुसरया आचार्याचे असल्यामुलें ते आम्ही ह्या पुस्तकांत घेतले नाहींत ।"
"
परंतु कर्णनाटक वगैरहकी वह दूसरी प्रति कौनसी है जिसमें उन २८ पद्योंको 'उक्तं च रूपसे दिया है, इस बात का कोई पता आप कुछ विद्वानोंके दर्यापत करने पर भी नहीं बतला सके । और इसलिये आपका उक्त उल्लेख मिथ्या पाया गया। इस प्रकारके मिथ्या उल्लेखोंको करके व्यर्थकी गड़बड़ पैदा करनेमें आपका क्या उद्देश्य अथवा हेतु था, इसे आप ही समझ सकते हैं । परंतु कुछ भी हो, इसमें संदेह नहीं और न इस कहने में मुझे जरा भी संकोच हो सकता है कि, आपकी यह सब कार्रवाई बिल्कुल ही अविचारित हुई है और बहुत ही आपत्तिके योग्य है । कुछ पद्यों का क्रम भी आपने बदला है और वह भी आपत्तिके योग्य है । एक माननीय ग्रंथसे, बिना किसी प्रबल प्रमाणकी उपलब्धिके और विना इस बात का अच्छी तरहसे निर्णय हुए कि उनमें कोई क्षेपक शामिल है या नहीं, अपनी ही कोरी कल्पना के आधारपर अथवा. स्वरुचिमात्र से कुछ पद्योंको (चाहे उनमें कोई क्षेपक भी भले ही हों) इस तरहपर निकाल डालना एक बहुत ही बड़े दुःसाहस तथा भारी धृष्टताका कार्य है । और इस लिये नागसाहबकी यह सब अनुचित कार्रवाई कदापि अभिनन्दनके योग्य नहीं हो सकती । आपने उन पत्रोंको निकालते समय यह भी नहीं सोचा कि उनमें से कितने ही पद्य ऐसे हैं जो आजसे कई शताब्दियों पहले के बने हुए ग्रंथोंमें स्वामी समंतभद्र के नाम से उल्लेखित पाये जाते हैं, कितने ही 'श्रावक पदानि देवैः' जैसे पद्योंके निकाल डालने से दूसरे पद्योंका महत्त्व तथा विषय कम हुआ जाता है; अथवा रत्नकरंडपर संस्कृत तथा कनड़ी आदि की कितनी ही टीकाएं ऐसी मिलती हैं जिनमें