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प्रस्तावना
अथवा ग्रन्थसे बाहरकी चीज समककर एकदम निर्वासित कर दिया है और अपने एसा करनेका कोई भी युक्तियुक्त कारण नहीं दिया। हाँ,टाइटिल और प्रस्तावना-द्वारा इतना ज़रूर सूचित किया है कि,ग्रन्थकी यह द्वितीयावृत्ति पं० पन्नालाल बाकलीवालकृत 'जैनधर्मामृतसार' भाग २ रा नामक पुस्तककी उस प्रथमावृत्तिके प्राकृल है जो नागपुरमें जून सन् १८६६ ई. को छपी थी। साथ ही यह भी बतलाया है कि उम पुस्तक में सिर्फ उन्हीं प्रलोकों को यहाँ छोड़ा गया है जो दूसरे प्राचायक थे, वाकी भगवत्ममंतभद्रके १०८ श्लोक इस श्रावृत्तिमें ज्याक त्यों ग्रहण किये गये हैं। परन्तु उस पुस्तकका नाम न तो 'उपासकाध्ययन' है
और न 'रत्नकरण्ड', न नाग साहवकी इम द्वितीयावृत्तिकी तरह उसके ५ भाग हैं और न उसमें समन्तभद्रके १०८ श्लोक ही पाये जाते हैं, बल्कि वह एक संग्रहपुस्तक है जिसमें प्रधानतः रत्नकरण्डश्रावकाचार और पुरुषार्थसिद्धयुपाय नामक ग्रन्थोंसे श्रावकाचारविषयका कुछ कथन प्रश्नोत्तररूपसे संग्रह किया गया है और उसे प्रश्नोत्तरश्रावकाचार' ऐसा नाम भी दिया है। उसमें यथाजो क्रमिक नम्बर, समूचे ग्रन्थकी दृष्टिसे, दिये हैं उनसे वह संख्या ५६ हो जाती है । साथ ही २१, २६, ३२, ४१, ६३, ६७, ६६, ७०, ७६, ७७, ७८, ७६, ८०, ८३, ८७, ८८, ८६, ६१, ६३, ६४, ६५, ६६, १०१, ११२, और १४८ नम्बरवाले २५ पद्योंको भी निकाले हुए सूचित किया है, जिन्हें वास्तवमें निकाला नहीं गया ! और निकाले हुए २,२८, ३१, ३३, ३४, ३६, ३६, ४०, ४७, ४८, ६६, ८५, ८६, १०८ और १४६ नम्बर वाले १५ पद्योंका उस सूचीमें उल्लेख ही नहीं किया ! इस प्रकारके गलत और भ्रामक उल्लेख, निःसन्देह बड़े ही खेदजनक और अनर्थमूलक होते है । बम्बई प्रान्तिक सभाने भी शायद इसी पर विश्वास करके अपने २१ वें अधिवेशनके तृतीय प्रस्तावमें ५८ संख्याका गलत उल्लेख किया है। ( देखो जनवरी सन् १९२२ का 'जैनबोधक' पत्र)