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समीचीन धर्मशास्त्र
सकाध्ययन' की उस प्रथमावृत्ति से बिल्कुल ही निकाल डालाछापा तक भी नहीं - जिसको उन्होंने शक सं० २०२६ | वि० सं० १६६१ ) में मराठी अनुवाद सहित प्रकाशित किया था । इसके बाद नाग साहवने अपनी बुद्धिको और भी उसी मार्ग में दौड़ाया और तब आपको अन्धकारमें ही - विना किसी आधार या प्रमाणके यह सुम पड़ा कि इस ग्रन्थ में और भी कुल क्षेपक है जिन्हें ग्रन्थसे बाहर निकाल देना चाहिये। साथ ही यह भी मातृम पड़ा कि निकाले हुए पास कुछका फिरसे बन्धमं प्रवेश कराना चाहिये | और इसलिये शक सं० १८४४ ( वि० सं० १९७६ ) में जब आपने इस ग्रन्थकी द्वितीयावृत्ति प्रकाशित कराई तब आपने अपनी उस सूम-बूमको कार्य में परिणत कर डाला - अर्थात्, प्रथमावृत्ति वाले रू पयो २६ और २६| नये इस प्रकार ४६ पयोंको उक्त आवृत्ति में स्थान नहीं दिया। उन्हें क्षेपक
* पांच पद्य जिन्हें प्रथमावृत्ति में, ग्रन्थसे बाहरकी चीज समझकर, निकाल दिया गया था और द्वितीयावृत्तिमें जिनको पुनः प्रविष्ट किया गया है उनके नाम इस प्रकार हैं-
मकराकर, गृहहारि, संवत्सर, नामयिकं, देवाधिदेव ।
इन २६ पद्योंमें छह तो वे बाकलीवालजीवाले पद्य हैं जिन्हें आपने प्रथमावृत्ति के अवसर पर क्षेपक नहीं समझा था और जिनके नाम पहले दिये जा चुके हैं। शेष २० पद्योंकी नामसूची इस प्रकार है
देशयामि, क्षुत्पिपासा, परमेष्ठी, अनात्मार्थ, सम्यग्दर्शनसम्पन्न, दर्शनं, गृहस्थो, न सम्यक्त्व, मोहितिमिरा, हिसानृत, सकलं, अल्पफल, सामयिके, शीतोष्ण, अशरण, चतुराहार, नवपुण्यैः, क्षितिगत, श्रावकपदानि येन स्वयं ।
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† अक्टूबर सन् १६२१ के 'जैनबोधक' में सेठ रावजी सखाराम दोशीने इन पद्योंकी संख्या ५८ (अट्टावन ) दी है और निकाले हुए पद्योंके