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प्रस्तावना
ग्रन्थके पद्योंकी जाँच समाजमें कुछ ऐसे भी विद्वान हैं जो इस ग्रंथको स्वामी समन्तभद्रका बनाया हुआ तो जरूर म्वीकार करते हैं, परंतु उन्हें इस ग्रंथके कुछ पदों पर संदेह है । उनके विचारसे ग्रंथमें कुछ ऐसे पना भी पाये जाते हैं जो मूल ग्रंथ-का अंग न होकर किसी दूसरे ग्रंथ अथवा ग्रंथोंक पदा हैं और बादको किसी तरह पर ग्रंथमें शाधि हो गये हैं । ऐसे पद्योंको वे लोग क्षेपक' अथवा 'प्रक्षिम कहते हैं और इस लिय ग्रन्थपर संदेहका यह एक दुसरा प्रकार है जिसका यहाँ पर विचार हानेकी ज़रूरत है-- __ ग्रंथ पर इस प्रकार के संदेहको सबसे पहले ५० पन्नालालजी बाकलीवालन, सन १८८८ इसवीमें, लिपिबद्ध किया। इस सालमें आपने रत्नकरंडावाका चारको अन्वय और अन्वयानुगत हिन्दी अनुवादमाहित नय्यार करके उसे 'दिगम्बर जैनपुस्तकालय-वर्धा के द्वारा प्रकाशिन कराया है । ग्रंथके इस मंस्करणमें २१ (इक्कोस) पद्योंको क्षपक' प्रकट किया गया अथवा उनपर 'क्षेपक' होनेका संदेह किया गया है. जिनकी क्रमिकसूची. कुछ आद्याक्षरोंको लिये हुए, निम्न प्रकार है
तावदं जनः तनाजिनेंद्र; यदि पाप; श्वापि देवा; भयाशास्नेह; मातंगो; धनश्री; मद्यमांसः प्रत्याख्यान; यदनिष्ट व्यापार; श्रीषेण; देवाधिदेव; अहेचरण: निःश्रेयस; जन्मजरा; विद्यादर्शन; कालेकल्प; निःश्रेयसमधिपन्ना; पूजार्था; सुखयतु । ___इन पद्योंमेंसे कुछ के क्षेपक' होनेके हेतुओंका भी फुट-नोटोंद्वारा उल्लेख किया गया है जो यथाक्रम इस प्रकार है
'तावदंजन' और 'ततोजिनेन्द्र' ये दोनों पद्य समन्तभद्रकृत नहीं हैं; परन्तु दूसरे किस प्राचार्य अथवा अन्थके ये पद्य हैं ऐसा