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प्रस्तावना
उल्लेख शिलालेख व पट्टावलियोंमें कुन्दकुन्दके पश्चात् पाया जाता है । कुन्दकुन्दाचार्य और उमास्वामीका समय वीरनिर्वाण से लगभग ६५० वर्ष पश्चात् (वि० सं० १८०) सिद्ध होता है-- अतः रत्नकरण्डश्रावकाचार और उसके कर्ता समन्तभद्रका समय वि. की दूसरी शताब्दीका अन्तिम भाग अथवा तीसरी शताब्दी का पूर्वाध होना चाहिये (यही समय जैन समाजमें आम तौर पर माना भी जाता है)। साथ ही, यह भी बतलाया था कि 'रत्नकरण्डके कर्ता ये समन्तभद्र उन शिवकोटिके गुरु भी हो सकते हैं जो रत्नमालाके कर्ता हैं। इस पिछली बात पर आपत्ति करते हुए पं० दरबारीलालजीने अनेक युक्तियोंके आधार पर जब यह प्रदर्शित किया कि 'रत्नमाला' एक आधुनिक ग्रन्थ है, रत्नकरण्डश्रावकाचारसे शताब्दियों बादकी रचना है, वि० की ११वीं शताब्दीके पूर्वकी तो वह हो ही नहीं सकती और न रत्नकरण्डश्रावकाचारके कर्ता समन्तभद्रके साक्षात् शिष्यकी ही कृति हो सकती है * तब प्रो. साहबने उत्तरकी धुनमें कुछ कल्पित युक्तियोंके आधार पर यह तो लिख दिया कि 'रत्नकरण्डको रचना का समय विद्यानन्दके समय (ई० सन् ८१६ के लगभग) के पश्चात् और वादिराजके समय अर्थात् शक संवत् ६४७ (ई० सन् १०२५) से पूर्व सिद्ध होता है । इस समयावधिके प्रकाशमें रत्नकरण्डश्रावकाचार और रत्नमालाका रचनाकाल समीप
आजाते हैं और उनके बीच शताब्दियोंका अन्तराल नहीं रहता है । साथ ही आगे चलकर उसे तीन आपत्तियोंका रूप भी दे दियाX; परन्तु इस बातको भुला दिया कि उनका यह सब
* अनेकान्त वर्ष ६ किरण १२ प० ३८०.३८२ + अनेकान्त वर्ष ७ किरण ५-६ पृ० ५४ । x जिनमेंसे एकका रूप है शक सं० १४७ से पूर्वके साहित्यमें