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प्रस्तावना
(ग) 'शर्म शाश्वतमवाप शङ्करः' इस धर्मजिनके स्तवनमें यह बतलाया है कि धर्मनामके अहत्परमेष्ठीने शाश्वत सुखकी प्राप्ति की है और इसीसे वे शंकर-सुखके करनेवाले हैं। शाश्वतसुखकी अवस्था में एक क्षणके लिये भी क्षुधादि दुःखोंका उद्भव सम्भव नहीं । इसीसे श्रीविद्यानन्दाचार्यने श्लोकवार्तिकमें लिखा है कि 'क्षुधादिवंदनं भूतो नाहतोऽनन्तशर्मता' अर्थात् सुधादि-वेदनाकी उभृति होनपर अहन्तके अनन्तसुख नहीं बनता।
(घ) 'वं शम्भवः सम्भवतपरोगैः सन्तप्यमानस्य जनस्य लोके' इत्यादि स्तवनमें शम्भवजिनको सांसारिक तृपा-रोगोंसे प्रपीड़ित प्राणियोंके लिये उन रोगोंकी शान्तिके अर्थ आकस्मिक वैद्य बतलाया है । इससे स्पष्ट है कि अहज्जिन म्वयं तृषा-रोगोंसे पीड़ित नहीं होते, तभी वे दूसरोंके तपा-रोगोंको दूर करने में समर्थ होते हैं । इसी तरह 'इदं जगज्जन्म-जरान्तकात निरञ्जनां शान्तिमजीगमस्त्वं' इस वाक्यके द्वारा उन्हें जन्म-जरा-मरणसे पीडित जगतको निरञ्जना-शान्तिकी प्राप्ति करानेवाला लिखा है, जिमसे स्पष्ट है कि वे स्वयं जन्म-जरा-मरणसे पीड़ित न होकर निरञ्जना-शान्तिको प्राप्त थे। निरञ्जना-शान्तिमें क्षुधादि-वेदनाओंके लिये अवकाश नहीं रहता।
(ङ) 'अनन्तदोषाशय-विग्रहो-ग्रहो विषङ्गवान्माहमयश्चिरं हृदि' इत्यादि अनन्तजित्के स्तोत्रमें जिस मोहपिशाचको पराजित करनेका उल्लेख है उसके शरीरको अनन्तदोषोंका आधारभूत बताया है, इससे स्पष्ट है कि दोषोंकी संख्या कुछ इनीगिनी ही नहीं है बल्कि बहुत बढ़ी-चढ़ी है, अनन्तदोष तो मोहनीयकमके ही आश्रित रहते हैं। अधिकांश दोषोंमें मोहकी पुट ही काम किया करती है । जिन्होंने मोहकमका नाश कर दिया है उन्होंने अनन्तदोषोंका नाश कर दिया है । उन दोषोंमें मोहके सहकारसे होनेवाली चुधादिकी बेदनाएँ भी शामिल हैं, इसीसे मोहनीय