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ममीचीन-धर्मशास्त्र
'क्षुत्पिपामा' पद्य का विरोध घटित होता हो अथवा जो आप्तकंवली या अहत्परमेष्ठीमें सुधादि-दोपोंके सद्भावको सूचित करती हो । जहाँ तक मैंने स्वयम्भूम्तोत्रादि दुसरे मान्य ग्रन्थोंकी छान-बीन की है, मुझे उनमें कोई भी एमी बात उपलब्ध नहीं हुई जो रत्नकरण्डके उक्त छठे पद्यक विरुद्ध जाती हो अथवा किसी भी विपयमें उसका विरोध उपस्थित करती हो। प्रत्युत इसके, ऐसी कितनी ही बात देखनम आती है जिनम हत्केवली में जुधादिवेदनाओं अथवा दापाक अभावकी मृचना मिलती है । यहाँ उनमंमे दो चार नमृनक तौर पर नाच व्यक्त की जाती हैं
(क) 'स्वदोष-शान्त्या विहितात्मशान्तिः' इत्यादि शान्ति-जिनके स्तोत्रमें यह बतलाया है कि शान्तिजिनेन्द्रन अपने दोपांकी शान्ति करके आत्मामें शान्ति स्थापित की है और इसीसे व शरणागतोंके लिये शान्तिके विधाता हैं। चूकि तुधादिक भी दोष हैं और वे आत्मामें अशान्तिके कारण होते हैं-कहा भी है कि "तुधासमा नास्ति शरीरवेदना" । अतः आत्मामें शान्तिको पूर्ण प्रतिष्ठाके लिये उनको भी शान्त किया गया है, तभी शान्तिजिन शान्तिके विधाता बने हैं और तभी संसार-सम्बन्धी क्लेशों तथा भयोंसे शान्ति प्राप्त करने के लिये उनसे प्रार्थना की गई है। और यह ठीक ही है जो स्वयं रागादिक दोषों अथवा क्षुधादिवेदनाओंसे पीडित है-अशान्त है-वह दूसरों के लिये शान्तिका विधाता कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता।
(ख) त्वं शुद्धि-शक्त्योरुदयस्य काष्ठां तुलाव्यतीतां जिन शान्तिरूपामवापिथ' इस युक्त्यनुशासनके वाक्यमें वीरजिनेन्द्रको शुद्धि, शक्ति और शान्तिकी पराकाष्ठाको पहुँचा हुआ बतलाया है। जो शान्तिकी पराकाष्ठा ( चरमसीमा) को पहुँचा हुआ हो उसमें सुधादि-वेदनाओंकी सम्भावना नहीं बनती।