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समीचीन-धर्मशास्त्र गृहस्थ भी; परन्तु परमात्मास्वरूप सर्वत्र अथवा प्राप्त नहीं ।।। __ अतः इस कारिकामें जब केवली आप्त या सर्वज्ञका कोई उल्लेख न होकर दूसरे दो सचेतन प्राणियोंका उल्लेख है तब रत्नकरण्डके उक्त छठे पद्यके साथ इस कारिकाका सर्वथा विरोध कैसे घटित किया जा सकता है ? नहीं किया जा सकता-खासकर उस हालतमें जब कि मोहादिकका अभाव और अनन्तब्रानादिकका सद्भाव होनेसे केवलीमें दुःखादिककी वेदनाएँ वस्तुतः बनती ही नहीं और जिसका ऊपर कितना ही स्पष्टीकरण किया जा चुका है। मोहनीयादि कर्मोंके अभावमें साता-असाता वेदनीय-जन्य सुख-दुःखकी स्थिति उस छायाके समान औपचारिक होती है वास्तविक नहीं-जो दूसरे प्रकाशके सामने
आते ही विलुप्त हो जाती है और अपना कार्य करने में समर्थ नहीं होती। और इसलिए प्रोफेसर साहबका यह लिखना कि "यथार्थतः वेदनीयकर्म अपनी फलदायिनी शनिमें अन्य अघातिया कर्मोंके समान सर्वथा स्वतन्त्र है" समुचित नहीं है। वन्तुतः अघातिया क्या, कोई भी कम अप्रतिहतरूपसे अपनी स्थिति तथा अनुभागादिके अनुरूप फलदानका कार्य करने में सर्वथा स्वतन्त्र नहीं है। किसी भी कर्मके लिये अनेक कारणोंकी जरूरत पड़ती है और अनेक निमित्तोंको पाकर कर्मोंमें संक्रमणव्यतिक्रमणादि कार्य हुअा करता है, समयसे पहिले उनकी निर्जरा भी हो जाती है और तपश्चरणादिके बल पर उनकी शक्तिको बदला भी जा सकता है। अतः कर्मोको सर्वथा स्वतन्त्र कहना एकान्त है मिथ्यात्व है और मुक्तिका भी निरोधक है।
यहाँ 'धवला' परसे एक उपयोगी शङ्का-समाधान उद्धृत किया जाता है, जिससे केवलीमें क्षुधा-तृषाके अभावका सकारण
+ अनेकान्त वर्ष ८, किरण १, पृष्ठ ३० ।