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समीचीन-धर्मशास्त्र उपस्थित किया है, जो निम्न प्रकार है:
पुण्यं ध्रुवं स्वतो दुःखात्पापं च सुख तो यदि ।
वीतरागो मुनिर्विद्वांस्ताभ्यां युज्यानिमित्ततः ॥६॥ इस कारिकाके सम्बन्धमें प्रो० साहबका कहना है कि 'इसमें वीतराग सर्वज्ञके दुःखकी वेदना स्वीकार कीगई है जो कि कर्मसिद्धान्तकी व्यवस्थाके अनुकूल है; जब कि रत्नकरण्डके उक्त छठे पद्यम क्षुत्पिपासादिका अभाव बतलाकर दुःखकी वेदना अस्वीकार की गई है जिसकी संगति कर्मसिद्धान्तकी उन व्यवस्थाओंके साथ नहीं बैठती जिनके अनुसार केवलीके भी वेदनीयकर्म-जन्य वंदनाएँ होती हैं और इसलिये रत्नकरण्डका उक्त पद्य इस कारिकाकं सर्वथा विरुद्ध पड़ता है-दोनों ग्रन्थोंका एक कर्तृत्व स्वीकार करनेमें यह विरोध बाधक है' * । जहाँ तक मैंने इस कारिकाके अर्थ पर उसके पूर्वापर सम्बन्धकी दृष्टिसे और दोनों विद्वानोंके ऊहापोहको ध्यानमें लेकर विचार किया है, मुझे इसमें सर्वज्ञका कहीं कोई उल्लेख मालूम नहीं होता। प्रो० साहबका जो यह कहना है कि 'कारिकागत 'वीतरागः' और 'विद्वान्' पद दोनों एक ही मुनि-व्यक्तिके वाचक हैं और वह व्यक्ति 'सर्वज्ञ' है, जिसका द्योतक विद्वान् पद साथमें लगा है' । वह ठीक नहीं है । क्योंकि पूर्वकारिकामेंक जिस प्रकार अचेतन और अकषाय (वीतराग) ऐसे दो अबन्धक व्यक्तियोंमें बन्धका प्रसङ्ग उपस्थित करके परमें दुःख-सुखके उत्पादनका निमित्तमात्र होनेसे पापपुण्यके बन्धकी एकान्त मान्यताको सदोष सूचित किया है उसी
* अनेकान्त वर्ष ८, कि०३, पृ० १३२ तथा वर्ष ६, कि०१, पृ० ६ + अनेकान्त वर्ष ७, कि० ३-४, पृ० ३४
* पापं ध्रुवं परे दुःखात् पुण्यं च सुखतो यदि । प्रचेतनाऽकषायौ च बध्येयातां निमित्ततः ॥१२॥