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समीचीन धर्मशास्त्र
प्रयत्न और कथन उनके पूर्व कथन एवं प्रतिपादन के विरुद्ध जाता है। उन्हें या तो अपने पूर्व कथनको वापिस ले लेना चाहिये था और या उसके विरुद्ध इस नये कथनका प्रयत्न तथा नई आपत्तियों का आयोजन नहीं करना चाहिये था दोनों परस्पर विरुद्ध बातें एक साथ नहीं चल सकतीं। इन सव तथा इसी प्रकारकी दूसरी असंगत बातों को भी प्रदर्शित करते हुए, मेरे उक्त लेखमें, जिसके एक अंशको ऊपर उद्धृत किया गया है, उन तीनों नई खड़ी कीगई आपत्तियों पर भी विस्तार के साथ युक्तिपुरस्सर गहरा विचार करके उन्हें निःसार प्रतिपादित किया गया है । लेखके इस उत्तरार्द्धका भी, जो अनेकान्तके उस वर्ष (सन १६४८ ) की अगली मार्च तथा अप्रेलकी किरणों में प्रकाशित हुआ है, प्रोफेसर साहबने कोई विरोध या प्रतिवाद करना उचित नहीं समझा। और इस तरह प्रोफेसर साहबने जिस नये सन्देहको जन्म दिया था वह अन्तको स्थिर नहीं रहा । साथ ही यह स्पष्ट होगया कि रत्नकरण्ड उन्हीं स्वामी समन्तभद्राचार्यकी कृति है जो आप्तमीमांसा (देवागम) के रचयिता हैं ।
रत्नकरण्ड श्रावकाचारका तथा रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसा के एक कर्तृत्वका उल्लेख न पाया जाना, दूसरीका रूप है वादिराजके पार्श्वनाथचरितमें रत्नकरण्डको समन्तभद्र - कृत न बतलाकर योगीन्द्र-कृत वतलायां जाना, और तीसरीका रूप है रत्नकरण्डके उपान्त्य पद्य नं० १८६ में प्रयुक्त हुए 'वीतकलंक' 'विद्या' और 'सर्वार्थसिद्धि' पदोंका आशय कलंक और विद्यानन्द नामके प्राचार्यों तथा पूज्यपादके 'सर्वार्थसिद्धि' ग्रन्थके उल्लेखसे लगाना ( अनेकान्त वर्ष ८ कि० ३ पृ० १३२ तथा वर्ष ६ कि० १५० ६, १० ) ।
६ देखो, अनेकान्त वर्ष किरण ३-४ में 'रत्नकरण्डकं कर्तृत्वविषय में मेरा विचार प्रौर निर्णय' नामक लेख ।
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