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समीचीन-धर्मशास्त्र शब्दका अभिप्राय उन अज्ञान तथा राग-द्वेषादिक वृत्तियोंसे है जो ज्ञानावरणादि घातिया कर्मोंसे उत्पन्न होती हैं और केवलीमें उनका अभाव होने पर नष्ट हो जाती हैं । । इस दृष्टिसे रत्नकरण्डके उक्त छठे पद्यमें उल्लेखित भय, स्मय, राग, द्वेप और मोह ये पाँच दोष तो आपको असङ्गत अथवा विरुद्ध मालूम नहीं पड़ते; शेप क्षुधा, पिपासा, जरा, आतङ्क (रोग), जन्म
और अन्तक (मरण)इन छह दोपोंको आप असंगत समझते हैंउन्हें सर्वथा असातावेदनीयादि अघातिया कर्मजन्य मानते हैं
और उनका प्राप्त केवलीमें अभाव बतलाने पर अघातिया कर्मों का सत्व तथा उदय वर्तमान रहने के कारण सैद्धान्तिक कठिनाई महसूस करते हैं । परन्तु अष्टसहस्रीमें ही द्वितीय कारिकाके अन्तर्गत 'विग्रहादिमहोदयः' पदका जो अर्थ 'शश्वनिस्वेदत्वादिः' किया है और उसे 'घातिक्षयजः बतलाया है उस पर प्रो० साहबने पूरी तौर पर ध्यान दिया मालूम नहीं होता । 'शश्वनिस्वेदत्वादिः' पदमें उन ३४ अतिशयों तथा ८ प्रातिहार्योंका समावेश है जो श्रीपूज्यपादके 'नित्यं निःस्वेदत्वं' इस भक्तिपाठगत अर्हत्स्तोत्र में वर्णित हैं । इन अतिशयोंमें अर्हत्स्वयम्भूकी देह-सम्बन्धी जो १० अतिशय हैं उन्हें देखते हुए जरा और रोगके लिये कोई स्थान नहीं रहता और भोजन तथा उपसर्गके अभावरूप (भुक्त्युपसर्गाभावः) जो दो अतिशय हैं उनकी उपस्थितिमें क्षुधा और पिपासा के लिये कोई अवकाश नहीं मिलता। शेष 'जन्म' का अभिप्राय पुनर्जन्मसे और 'मरण' का अभिप्राय अपमृत्यु अथवा उस मरणसे है जिसके अनन्तर दूसरा भव ( संसारपर्याय ) धारण * "दोषास्तावदज्ञान-राग-द्वेषादय उक्ताः'।
(अष्टसहस्री का० ६, पृ० ६२) अनेकान्त वर्ष ७, कि० ७-८, पृ० ६२ अनेकान्त वर्ष ७, कि० ३-४, पृ० ३१